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इसीलिए तो कहा था कि जब तक हम यह न पहिचान पाएँ कि जिनवाणी में जो कथन हैं उसमें कौन तो सत्यार्थ हैं और कौन समझाने के लिए व्यवहार से कहा गया हैं तब तक हम सब को एकसा सत्यार्थ मानकर भ्रम रूप रहते हैं।
दीवान रतनचंद - तो जिनवाणी में व्यवहार का कथन किया ही क्यों ?
पं. टोडरमल - व्यवहार के बिना परमार्थ को समझाया नहीं जा सकता, अतः असत्यार्थ होने पर भी जिनवाणी में व्यवहार का कथन पाता हैं ।
दीवान रतनचंद - व्यवहार के बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं हो सकता?
पं. टोडरमल - निश्चय नय से तो प्रात्मा परद्रव्यों से भिन्न, स्वभाव से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु हैं; उसे जो नहीं पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तो वे समझ नहीं पावेंगे। अतः उन्हें समझाने हेतु व्यवहार से शरीरादिक परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर-नारकादि रूप जीव के विशेष किए तथा मनुष्य जीव, नारकी जीव आदि रूप से जीव की पहिचान कराई। इसी प्रकार प्रभेद वस्तु में भेद उत्पन्न करके समझाया। जैसे-जीव के ज्ञानादि गुण पर्याय रूप भेद करके स्पष्ट किया; जाने सो जीव, देखे सो जीव।
जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना समझाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार व्यवहारी जनों को व्यवहार बिना निश्चय का ज्ञान नहीं कराया जा सकता हैं।
दीवान रतनचंद - तो हमें कैसा मानना चाहिए ?
पं. टोडरमल - जहाँ निश्चय नय की मुख्यता से कथन हो, उसे तो " सत्यार्थ ऐसे ही हैं” ऐसा जानना और जहाँ व्यवहार नय की मुख्यता से कथन हो, उसे “ऐसे है नहीं, निमित्त आदि की अपेक्षा उपचार किया हैं" ऐसा जानना।
दीवान रतनचंद - व्यवहार नय पर को उपदेश देने में ही कार्यकारी हैं या अपना भी प्रयोजन साधता हैं ?
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