________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पंच भाव प्रवचनकार - यह 'तत्त्वार्थसूत्र' अपरनाम 'मोक्षशास्त्र' नामक महाशास्त्र है। इसका दूसरा अध्याय चलता है। यहाँ जीव के असाधारण भावों का प्रकरण चल रहा है। आत्मा का हित चाहने वालों को प्रात्म-भावों की पहिचान ठीक तरह से करना चाहिये, क्योंकि आत्मा को पहिचाने बिना अनात्मा को भी नहीं पहिचाना जा सकता है और जो आत्मा-अनात्मा दोनों को भी नहीं जानता, उसका हित कैसे संभव है ?
जीव के असाधारण भाव कितने व कौन-कौन हैं ? - इस प्रश्न का समाधान करते हुए प्राचार्य उमास्वामी लिखते हैं :'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक-पारिणामिकौ च।"
औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक - ये जीव के पाँच असाधारण भाव व निजतत्त्व हैं। जीव के सिवाय किसी अन्य द्रव्य में नहीं पाये जाते हैं। __इन भावों का विशेष विश्लेषण प्राचार्य अमृतचंद्र ने ‘पंचास्तिकाय संग्रह' की ५६ वीं गाथा की टीका में इस प्रकार किया हैं :___ “कर्मों का फलदानसामर्थ्यरूप से उद्भव सो 'उदय' है, अनुभव सो 'उपशम' है, उद्भव तथा अनुभव सो 'क्षयोपशम' है, अत्यन्त विश्लेष (वियोग) सो 'क्षय' है। द्रव्य का आत्मलाभ (अस्तित्व) जिसका हेतु है वह 'परिणाम' है। " वहाँ उदय से युक्त वह 'औदयिक' है, उपशम से युक्त वह 'औपशमिक' है, क्षयोपशम से युक्त वह ‘क्षायोपशमिक' है, क्षय से युक्त वह 'क्षायिक' है, परिणाम से युक्त वह ‘पारिणामिक' है।"
कर्मोपाधि की चार प्रकार की दशा जिनका निमित्त है- ऐसे चार ( उदय, उपशम , क्षयोपशम और क्षय) भाव हैं। जिसमें कर्मोपाधिरूप निमित्त बिलकुल नहीं है, मात्र द्रव्यस्वभाव ही जिसका कारण है-ऐसा एक पारिणामिक भाव है।
१ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र १
३८ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com