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मैं समझता हूँ अब तो लक्षण और लक्षणाभासों का स्वरूप तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ गया होगा ।
श्रोता - आ गया! अच्छी तरह आ गया !!
प्रवचनकार - आ गया तो बताओ ' जिसमें केवलज्ञान हो, उसे जीव कहते हैं', क्या जीव का यह लक्षण सही है ?
श्रोता - नहीं, क्योंकि यहाँ जीव 'लक्ष्य' है और केवलज्ञान ‘लक्षण’। लक्षण सम्पूर्ण लक्ष्य में रहना चाहिए, किन्तु केवलज्ञान सब जीवों में नहीं पाया जाता है, अत: यह लक्षण प्रव्याप्ति दोष से युक्त है । यदि इस लक्षण को सही मान ले तो मति श्रुतज्ञान वाले हम और आप सब अजीव ठहरेंगे ।
प्रवचनकार - तो मतिश्रुतज्ञान को जीव का लक्षण मान लो।
श्रोता - नहीं ! क्योंकि ऐसा मानेंगे तो अरहंत और सिद्धों को अजीव मानना होगा, क्योंकि उनके मतिश्रुतज्ञान नहीं है । अत: इसमें भी अव्याप्ति दोष है।
प्रवचनकार - तुमने ठीक कहा। अब कोई दूसरा श्रोता उत्तर देगा- जो प्रमूर्तिक हो उसे जीव कहते है, क्या यह ठीक है ?
प्रवचनकार
श्रोता - हाँ, क्योंकि प्रमूर्तिक तो सभी जीव हैं, अतः इसमें प्रव्याप्ति दोष नहीं हैं। यह लक्षण भी ठीक नहीं है । यद्यपि इसमें अव्याप्ति दोष नहीं है, किन्तु प्रतिव्याप्ति दोष है; क्योंकि जीवों के अतिरिक्त प्रकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और कालद्रव्य भी तो अमूर्त्तिक हैं। उक्त लक्षण में 'जीव' है लक्ष्य और 'जीव के अतिरिक्त अन्य द्रव्य यानी अजीव द्रव्य ' हुए अलक्ष्य । यद्यपि सब जीव प्रमूर्त्तिक हैं, किन्तु जीव के अतिरिक्त प्राकाशादि द्रव्य भी तो प्रमूर्त्तिक हैं; मूर्त्तिक तो एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही है, अतः उक्त लक्षण लक्ष्य के साथ अलक्ष्य में भी व्याप्त होने से अतिव्याप्ति दोष से युक्त है । यदि ' जो प्रमूर्तिक सो जीव' ऐसा माना जायगा तो फिर आकाशादि अन्य चार द्रव्यों को भी जीव मानना होगा।
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प्रवचनकार
शंकाकार - यदि आत्मा का लक्षण वर्ण-गंध-रस - स्पर्शवान माना जाय तो ? यह बात तुमने खूब कही ! क्या सो रहे थे ? यह तो असम्भव बात है। आत्मा में वर्णादिक का होना सम्भव ही नहीं है । इसमें तो असम्भव नाम का दोष आता है, ऐसे ही दोष को तो असम्भव दोष कहा जाता है।
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