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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार] __ [४५ होने से पूर्वकृत अशुभकर्म निर्जर गया हो उनका समस्त अचेतन पुद्गल राशि भी देवतारूप होकर उपकार करती है; देवता, मनुष्य उपकार करते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है ? जैनशास्त्रों में भी ऐसी कई कहानियां है कि शीलवान तथा ध्यानी तपस्वियों के धर्म के प्रसाद से देवों के आसन कंपित हुए, फिर देवों ने जाकर उपसर्ग दूर किया और अनेक प्रकार के रत्नों से धर्मात्माओं की पूजा की। ऐसी कथायें शास्त्रों में बहुत हैं, किन्तु ऐसी कोई भी कथा नहीं है जहां धर्मात्मा पुरुषों ने देवों की पूजा की हो। पद्मावती, चक्रेश्वरी की भी कई कथायें हैं जहां शीलवन्ती, व्रतवंतियों की देव-देवियों ने पूजा की; किन्तु ऐसा कहीं नहीं लिखा है जहां शीलवन्ती व्रतवन्ती ने जाकर किसी देव-देवी की पूजा की हो। स्वामी कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है: । णय को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मपि सुहासुहं कुणदि ।।३१९ ।। भत्तीए पुज्जमाणो विंतर देवो वि देदि जदि लच्छी। तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी ।।३२०।। अर्थ :- इस जीव को कोई लक्ष्मी नहीं देता है, और जीव का कोई उपकार-अपकार भी नहीं करता है। जगत में जो उपकार-अपकार करता हुआ दिखाई देता है वह अपने किये हुये शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा होता है। भक्ति पूर्वक पूजा करने से यदि व्यंतरदेव ही लक्ष्मी देवें तो दान, पूजा, शील, संयम, ध्यान, अध्ययन, तपरूप समस्त धर्म ( शुभ भावरूप पुण्य ) क्यों किये जायें ? यदि भक्ति पूर्वक पूजा वंदना करने से कुदेव ही संसार के कार्य सिद्ध करने लगेंगे तो कर्म कुछ वस्तु ही नहीं रहेगी ? व्यंतर ही समस्त सुख को देनेवाला रहा, धर्म का आचरण निष्फल रहा। भावार्थ :- जगत में इस जीव का जो देव, दानव, देवी, मनुष्य, स्वामी, माता, पिता, भाई, मित्र, स्त्री, पुत्र, तिर्यंच, औषधि आदि जो उपकार या अपकार करते हैं सो सभी अपने द्वारा किये गये पुण्यकर्म-पापकर्म हैं उनके उदय के आधीन करते हैं। ये सभी तो बाह्य निमित्त मात्र हैं। ऐसा भी देखा जाता है कि कोई भला करना चाहता है, उपकार करना चाहता है किन्तु उपकार-बुरा हो जाता है; कोई बुरा करना चाहता है किन्तु उपकार-भला हो जाता है। इसलिये प्रधान कारण पुण्य-पाप कर्म हैं। शास्त्रो में लिखा है :- चांडाल के अहिंसाव्रत के प्रभाव से देवों ने सिंहासन आदि बिना दिये; नीली के शील के प्रभाव से देवता सहायी हुए; सीता के शील के प्रभाव से अग्निकुण्ड जलरूप हो गया; सुदर्शन सेठ का उपसर्ग देव ने आकर टाला; और भी कितनों ही की देवों ने सहायता ही, उपसर्ग दूर किये, देवों के आसन कंपायमान हुए, और देवों ने आकर सहायता की - ऐसी हजारों कथाये प्रसिद्ध हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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