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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४०] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार गृहस्थ का स्नान किये बिना निर्वाह नहीं है; परन्तु अज्ञानी गृहस्थ स्नान करने से धर्म होना मानता है, पवित्र होना मानता है। ऐसी मिथ्याबुद्धि अनादिकाल से हो रही है। यदि यह स्नान का स्वरूप समझ ले तो स्नान को धर्म नहीं मानेगा और स्नान से पवित्रपना नहीं मानेगा। यद्यपि स्नान के बिना गृहस्थ का समस्त व्यवहार-आचार दूषित हो जायेगा, और व्यवह र दूषित हो जाने से परमार्थ शुद्धि भी प्रकट नहीं कर सकेगा; परन्तु यह राग बढ़ानेवाला है, इसमें हिंसा होती है इसलिये पापरूप हैं, ऐसा श्रद्धान तो करना चाहिये। और भी शिक्षा ग्रहण करना :- पिछले करोड़ो भवों में बाँधा हुआ जो कर्म उसके उदय से मन में उत्पन्न हुआ जो मिथ्यात्व आदि रूप मल उसका नाश करनेवाला जो आप-पर का भेद जानने रूप विवेक है वह ही सत्पुरुषों का मुख्य स्नान है। सत्पुरुषों के तो मिथ्यात्वमल का नाश करनेवाला एक विवेक ही स्नान है। दूसरा जो जल से स्नान है वह तो जीवों के समूह का घात करनेवाला होने से पापबंध करानेवाला ही है, इससे धर्म नहीं होता है। यही कारण है जिससे स्वभाव से ही अपवित्र शरीर में पवित्रता नहीं होता है। __और भी कहते हैं - हे समझदार बन्धुओ! आत्मा की शुद्धता के प्रयोजन से परमात्मा नाम के तीर्थ में सदाकाल स्नान करो। व्यर्थ ही खेद करके दुःखी होकर गंगादि तीर्थों की ओर क्यों दौड़ते हो ? कैसा है परमात्मा नाम का तीर्थ ? जिसमें सम्यग्ज्ञानरूप निर्मल जल भरा है, जिसमें सम्यग्दर्शनरूप दैदीप्यमान लहर है, अविनाशी-अनन्त सुख से शीतल है, और समस्त पापों को धोकर नष्ट कर देनेवाला है, ऐसे परमात्म स्वरूप तीर्थ में डुबकी लगाकर लीन हो जाओ। ___जगत के पापी मिथ्यादृष्टि लोगों ने निश्चयरूप निर्मल तत्त्वों का सरोवर देखा ही नहीं हैं; और कभी ज्ञानरूप रत्नाकर समुद्र भी नहीं देखा है। समता नाम की अत्यन्त शुद्ध नदी भी नहीं देखी है। इसी कारण से पाप को दूर करनेवाले सत्य तीर्थों को छोड़कर मूर्ख लोग जिन्हें तीर्थ कहते हैं वे संसार से तारनेवाले नहीं है, ऐसे गंगादि नदियों में डूबकर वे हर्षित होते हैं। जिन मूों ने तत्त्वों का निश्चयरूप सरोवर नहीं देखा है, ज्ञानरूप समुद्र नहीं देखा और समता नाम की नदी नहीं देखी है वे गंगादि तीर्थाभासों में दौड़ते फिरते हैं। यदि वे तत्त्वों के निश्चयरूप सरोवर को देखते, ज्ञानरूप समुद्र को देखते और समता नाम की नदी को देखते तो इनमें डुबकी लगाकर, मिथ्यात्व व कषायरूप मल से रहित होकर अपने को उज्ज्वल पवित्र कर लेते। इस लोक में ऐसा कोई तीर्थ नहीं है और ऐसा कोई पदार्थ भी नहीं है जिससे यह सम्पूर्ण अपवित्र मनुष्य का शरीर साक्षात् शुद्ध हो जाय। यह शरीर कैसा है ? आधि, व्याधि, जरा, मरण आदि से निरंतर व्याप्त है और निरंतर ही दुःखी करनेवाला है। सत्पुरुषों द्वारा तो इसका नाम भी लेने योग्य नहीं है। समस्त तीर्थों के जल से नित्य स्नान करें और चन्दन कपूर आदि का लेप लगावें तो भी यह शरीर शुद्ध नहीं होगा, सुगंधित नहीं होगा; रक्षा करते-करते भी यह विनाश के मार्ग पर ही चला Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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