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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२६]
इस जगत में जीवों को मोह के उदय से आशा और शंका निरन्तर बनी रहती है। आशा-चाह करने से कुछ प्राप्त तो होता नहीं है। सभी जीव अपने लिये नित्य ही धन की प्राप्ति, नीरोगता, कुटुम्ब की वृद्धि, इन्द्रियों का बल, अपनी उच्चता चाहते हैं परन्तु चाह करने से कुछ होता नहीं है। सभी जीव चाह कर-करके निरन्तर पापबन्ध और अंतरायकर्म का तीव्र बंध कर रहे हैं।
कितने ही जीव भोग के अभिलाषी होकर दान, तप, व्रत, शील, संयम धारण करते हैं, किन्तु वांछा करने से तो पुण्य का घात ही होता है। पण्य का बन्ध तो निर्वांछक को होता है। जो शुभ-अशुभ कर्म के उदय से प्राप्त विषयों में संतोषी होकर, निराकुल होकर, विषयों की वाछां नहीं करता है, उसे पुण्य का बन्ध होता है।
जगत के सभी जीव नित्य प्रातःकाल उठ करके यह चाहते हैं कि मुझे वियोग, मरण, हानि, अपमान, धन का नाश , रोग, वेदना न हो। निरन्तर इनकी ही होने की शंका करते रहते हैं, बहुत भयभीत रहते हैं तो भी वियोग होता ही है, मरण होता ही है। धन हानि, बल हानि, अपमान, रोग, वेदना आदि पूर्व में बांधे गये जो कर्म हैं, उनके उदय के अनुसार होते ही हैं। इनको टालने में इन्द्र, जिनेन्द्र मन्त्र, तन्त्रादि कोई भी समर्थ नहीं है; क्योंकि मरण तो आयुकर्म के नाश से होता है, अलाभादि अन्तराय कर्म के उदय से होते हैं, रोगवेदनादि असातावेदनीय कर्म के उदय से होते हैं; और कर्म को हटा देने में, जुटा देने में, पलट देने में कोई देव, दानव, इन्द्र, जिनेन्द्रादि समर्थ नहीं है। जीव अपने भावों द्वारा बांधे गये कर्मों से अपने को छुड़ाने के लिये अपने संतोष, क्षमा, तपश्चरणादि भावों के द्वारा आप ही समर्थ है, अन्य कोई नहीं। ऐसे दृढ़-निश्चयश्रद्धान का धारी निःशंक-निर्वांछक सम्यग्दृष्टि ही होता है।
अवती-गृहस्थ के सम्यक्त्व के विषय में विचार यहाँ कोई प्रश्न करता है - समस्त परिग्रह के त्यागी मुनीश्वर साधु हैं उनको तथा त्यागी गृहस्थों को तो शंका रहितपना तथा वांछा का अभावपना हो सकता है, किन्तु व्रत रहित गृहस्थों को निःशंकितपना, निःकांक्षितपना कैसे हो सकता है ? अव्रत-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को तो भोगों की इच्छा होती दिखाई देती है; वणिज-व्यवहार में, सेवा-नौकरी करने में लाभ चाहता ही है; अपने कुटुम्ब की वृद्धि, धन की वृद्धि चाहता ही है; तथा रोग की शंका, कुटुम्ब के वियोग की शंका, जीविका के बिगड़ जाने की शंका, धन के नाश होने की शंका उसे तो निरन्तर बनी ही रहती है, तब उसे निःशंकपना-निर्वांछकपना कैसे होगा ? और निःशंकित-निःकांक्षित भाव हुए बिना सम्यक्त्व कैसे होगा ? इसलिये अव्रती-गृहस्थ को सम्यक्त्व होना कैसे सम्भव है ?
उसका उत्तर ऐसा जानना - जो सम्यक्त्व होता है, वह मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय का अभाव होने पर होता है। अव्रत-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के मिथ्यात्व का अभाव हुआ है
और अनन्तानुबंधी कषाय का भी अभाव हुआ है। मिथ्यात्व के अभाव से तो सच्चा आत्मतत्त्व और पर-तत्त्व का श्रद्धान प्रगट हुआ है। अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव से विपरीत रागभाव का अभाव
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