SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार । [२५ होना, कभी धन की हानि, कभी अनिष्ट का संयोग होना-इस प्रकार अन्तर सहित और अनेक दुःखों सहित है। यह सुख पाप का बीज है। इन्द्रियजनित सुखों में लीन होते ही यह जीव अपना स्वरूप भूलता ही है, महाघोर आरम्भ में प्रवर्तता ही है, अन्याय और विषयसेवन करता ही है, इससे पापबन्ध ही होता है। अतः इन्द्रियजनित सुख नरक-तिर्यंचादि गतियों मे परिभ्रमण करानेवाला पापबंध का बीज है। ऐसे पराधीन, अन्तसहित, दुःखो से भरे जितने भी इन्द्रियजनित सुख है, वे सब सम्यग्दृष्टि को सुख दिखते ही नहीं हैं, तब उस सुख में उसे आस्थारूप श्रद्धान कैसे होगा ? जब श्रद्धान ही नहीं होगा तब वह वांछा कैसे करेगा? यहां ऐसा भाव समझना-जो सम्यग्दृष्टि है, उसे आत्मा का अनुभव तो होता ही है। जब आत्मा का अनुभव हुआ है तब आत्मा का स्वभाव जो अतीन्द्रिय अनन्तज्ञान और निराकुलता लक्षणरूप अविनाशी सुख है, उसका अनुभव होता ही है। संसारी जीवों को जो इंद्रियों के आधीन सुख है, वह तो सुखाभास है, सुख नहीं है, वेदना का इलाज है। जिसे क्षुधा की तीव्र वेदना उत्पन्न होगी, वह भोजन करके सुख मानेगा. प्यास लगेगी वह ठंडा पानी पीना चाहेगा. शीत की वेदना होगी तो रुई का वस्त्र तथा ऊनी वस्त्र ओढ़ना चाहेगा, गर्मी की वेदना होगी तो ठंडी हवा चाहेगा, क्योकि रोग का कष्ट के बिना इलाज कौन चाहता है ? नेत्र में रोग हुए बिना आंखों में अंजन कौन लगाता है ? कर्ण में रोग हुए बिना बकरा का मूत्र तथा तेल आदि कान में कौन डालता है ? ठंड के बुखार के बिना अग्नि की ताप तथा सूर्य की धूप आदर से कौन सेवन करता है ? वातरोग के बिना दुर्गंधित तेल आदि की मालिश कौन कराना चाहेगा? इसलिये संसारी जीव को इन पांचों इन्द्रियों के विषयों की तीव्र चाहरूप दुःख उत्पन्न होने पर इन विषयों के भोगने की इच्छा उत्पन्न होती है। विषयों के भोग तो उस दुःख को थोड़े समय के लिये शान्त कर देते हैं, किन्तु बाद में और अधिक दुःख उत्पन्न करते हैं। इसलिये इन्द्रियों के विषयों को भोगने से उत्पन्न होने वाला सुख तो वास्तव में दुःख ही है। बाह्य शरीर-इंद्रियादि को ही आत्मा जाननेवाला बहिरात्मा है; वह विषयों की वेदना के इलाज को ही सुख मानता है। ऐसा मानना तो मोहकर्मजनित भ्रम है। सुख तो ऐसा है - जहाँ दुःख उत्पन्न ही न हो, उसका लक्षण निराकुलता है। विषयों के आधीन सुख मानना तो मिथ्याश्रद्धान है। सम्यग्दृष्टि को अहमिन्द्रलोक का सुख भी पराधीन, आकुलतारूप, विनाशीक, केवल दुःखरूप ही दिखाई देता है। अतः सम्यग्दृष्टि को इन्द्रियजनित सुख में कभी भी वांछा नहीं होती है। सम्यग्दृष्टि इस जन्म में तो धन, सम्पत्ति, वैभव आदि नहीं चाहता है और परलोक में भी इन्द्रपना, चक्रीपना इत्यादि कभी नहीं चाहता है। ये इन्द्रियों के विषय तो थोड़े समय के लिये हैं, किन्तु इनका फल असंख्यातकाल तक नरक के दुःख, तथा अनन्तकाल तक तिर्यंच आदि गतियों में महादरिद्री, महारोगी, नीचकुल के मनुष्यों में अनेक जन्म धारण कर भोगना होता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy