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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार तीर्थंकर केवली को सामान्य केवली द्वारा नमस्कार करना कहते हैं ? बाहुबलि मुनि ने ऋषभदेव तीर्थंकर मुनि को नमस्कार किया था, ऐसा कहते हैं ? सातवें गुणस्थान से ही वंद्यवंदक भाव नहीं रहता है। जहाँ आत्म स्वभाव का अनुभव है वहाँ विभावभाव कैसे रह सकते है? कतकत्य भगवान सर्वज्ञ देव द्वारा अन्य को नमस्कार करके क्या साध्य होनेवाला है ? वंदन योग्य परमेष्ठी और मैं वंदना करनेवाला - ऐसा भाव तो प्रमत्त नामक छटवें गुणस्थान पर्यंत ही है। ऐसा भी कहते हैं - एक स्कंधक नामक त्रिदंडी कुलिंग भेषी को अपने निकट आता देखकर वीरजिन ने गौतम गणधर से कहा कि – यह स्कंधक सन्यासी आ रहा है, मुझसे अधिक बलवान है, और तुम्हारी इससे मित्रता है, सामने से जाकर उसे लिवा लाओ ? तब गौतम गणधर बड़ी भक्ति से उसे सामने जाकर लिवा लाये ? विचार करो - बड़ा अनर्थ है! अव्रती - सम्यग्दृष्टि भी कुलिंगी का सम्मान नहीं करता है, तो महाव्रती गणधर कैसे भक्तिपूर्वक सम्मान करेंगे ? ___ स्त्री के पंचम गुणस्थान से अधिक गुणस्थान ही नहीं होते, प्रथम तीन संहनन नहीं होते, अहमिंद्र लोक प्राप्त नहीं हो सकता, और सप्तम नरक में गमन नहीं हो सकता, तो स्त्री के मुक्ति कैसे कहते हैं ? मल्लिनाथ जिनेन्द्र को स्त्री कहते हैं, उसकी प्रतिमा पुरुषरूप में बनाकर पूजते हैं ? ऐसे महाअसत्यवादी हैं। कोई एक हरिक्षेत्र का निवासी मनुष्य जिसका दो कोस ऊँचा शरीर था, उसको कोई पूर्व जन्म का शत्रु देव उठा लाया, और दो कोस के शरीर को छोटा करके भरतक्षेत्र में लाकर मथुरा नगरी का राज्य देकर और मांस भक्षण कराकर पापी बनाकर नरक पहुँचा दिया ? और कहते हैं - उससे हरिवंश की उत्पत्ति हुई है ? ऐसी मिथ्या कल्पनाओं का कुछ ठिकाना नहीं है। दो कोस का शरीर उसे कैसे छोटा किया होगा? ऊपर से काटा होगा कि नीचे से काटा होगा, कि बीच में से ? इसका कुछ भी उत्तर नहीं देते। हरिक्षेत्र में तो भोगभूमि है। भोगभूमि के तो सभी मनुष्य व तिर्यंच देवगतिगामी हैं। भोगभूमि में तो स्त्री-पुरुषों की संख्या बराबर निश्चित है। माता-पिता के मरने के पहिले ही उनके स्थान पर आनेवालों का जन्म हो जाता है। यदि अनन्तकाल बीतने पर एक-एक कम होने लगे तो सम्पूर्ण भोगभूमि खाली हो जायेगी? द्रव्य छह कहते हैं और मुख्य काल द्रव्य का अभाव मानते हैं, व्यतीत-नाश होनेवाला समय आदि को ही काल कहते हैं ? इस प्रकार इनके असत्य कथनों का अन्त नहीं है। कहते हैं कि - साधु की निन्दा करनेवाले को मार डालने में पाप नहीं होता है ? यदि देव , गुरू, धर्म का द्रोही चक्रवर्ती भी हो तो सेना सहित चक्रवर्ती का भी विध्वंस करनेवाले साधु को पाप नहीं लगता है ? यदि वह साधु ऋद्धि आदि से उत्पन्न शक्ति होने पर भी निन्दक को नहीं मारता है तो वह साधु अनंत संसारी है ? विचार करो - ऐसे पापी साधु के समताभाव कहाँ रहा ? वितरागता कहाँ रही ? __ ये पापी महान् शीलवंतों को भी दोष लगाकर उन्हें निर्दोष ही कहते हैं। कहते हैं कि - भरत चक्रवर्ती ने अपनी ब्राह्मी नामक बहिन के साथ विवाह किया था ? द्रोपदी को पंचभर्तारी कहते Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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