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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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करा सकती है; तथा जैसे जागृत अवस्था बिना आत्मानुभवनरूप ध्यान नहीं बन सकता है उसी प्रकार असाता की उदीरणा बिना असाता कर्म क्षुधा, तृषादिक नहीं उत्पन्न करा सकता है।
और भी समझो - अप्रमत्त साधु भी आहार की इच्छा मात्र करने से प्रमत्तपने को प्राप्त हो जाता है, तो भोजन करता हुआ भी केवली प्रमत्त क्यों नहीं होता है ? यहा बड़ा आश्चर्य है! केवली भगवान तीनों लोकों के बीच में मारण, ताड़न, छेदन, ज्वालन, मद्य, मांस आदि अपवित्र पदार्थों को प्रत्यक्ष देखते हुए कैसे भोजन कर लेते हैं ? अल्पशक्ति के धारी गृहस्थ को भी अयोग्य वस्तु, निंद्यकर्म का देखना अंतराय कर देता है, और केवली को अंतराय नहीं करता; तो केवली के गृहस्थों से भी अधिक भोजन में लम्पटता रही, और शक्ति की हीनता रही? फिर उसकी अनंतशक्ति कहाँ रही ? और जिसको क्षुधा वेदना हो उसको अनंतसुख कहाँ रहा ?
क्षुधा समान वेदना जगत में अन्य नहीं है। इसलिये सर्वज्ञ के क्षुधा वेदना होने से अनंतवीर्य, अनंतसुख नहीं रहे। ऋद्धिजनित अतिशयवान मुनि में भी ऐसे कार्य करने की सामर्थ्य पाई जाती है जो सामान्य अन्य मनुष्यों में नहीं पाई जाती है, तो अनंतवीर्य के धारी केवली भगवान के आहार बिना देह की स्थिति रहना क्या सम्भव नहीं है ? यदि सर्वज्ञ के भी अन्य मनुष्यों के समान आहार, नीहार, निद्रा, रोग, स्वेद , खेद, मल, मूत्र होता रहे तो सामान्य आत्मा में और परमात्मा में क्या अन्तर रहा ? ।
आहार के विषय में विचार जीवन कवलाहार से ही नहीं होता है, आयुकर्म के उदय से होता है। गाथा में भी कहा है
णोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेपमाहारो। उज्जमणोविय कमसो आहारो छव्विहो भणिओ।। णो कम्मं तित्थयरे कम्मं णिरयेय माणसो अमरे।
कवलाहारो णरपसु उज्जो पक्खी य इगि लेपो।। अर्थ :- आहार के ६ भेद हैं - कर्म आहार १, नोकर्म आहार २, कवल आहार, ३ लेप आहार ४ , ओज आहार ५, मानसिक आहार ६।
भगवान अरहंत के तो अन्य जीवों को असंभव ऐसे शुभ सूक्ष्म नोकर्म वर्गणा का ग्रहण होना ही आहार है। नारकियों के कर्म का भोगना ही आहार है। चार प्रकार के देवों के मानसिक आहार है। मन में इच्छा होते ही कण्ठ में से अमत झर जाता है उससे तप्ति हो जाती है। मनुष्य और पशुओं के कवलाहार है। पक्षिओं के अण्डे में रहने वाले जीवों के माता के उदर की ऊष्मारूप ओज आहार है और एकेन्द्रिय पृथ्वी आदि जीवों के लेप आहार है। अर्थात् पृथ्वी आदि का स्पर्श ही आहार है।
भोगभूमि के औदारिक देह के धारी मनुष्यों का शरीर तो तीन कोस प्रमाण तथा भोजन आँवला प्रमाण, तीन दिन के अंतर से लेते हैं। इसलिये कहते हैं कि - कवलाहार ही देह की स्थिति का
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