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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार] जाना; विष हालाहलरूप शक्ति घट जाती है ४। इसके पश्चात् अपूर्वकरण गुणस्थान में गुण श्रेणी निर्जरा १, गुणसंक्रमण २, स्थितिखण्डन ३, अनुभाग खण्डन ४-ये चार आवश्यक होते हैं। इसलिए उन करण–परिणामों के प्रभाव से असातावेदनीय आदि अप्रशस्त प्रकृतियों के रस को असंख्यातबार अनन्त का भाग देने के बराबर तक घट जाने से उसमें इतनी मंद शक्ति रह गई कि वह असातावेदनीय सर्वज्ञ को परीषह उत्पन्न करने में समर्थ ही नहीं है। घातिया कर्मों की सहायता भी नहीं रही, इसलिये परीषह देने में समर्थ नहीं है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी कहा है - णट्ठा य राय दोसा इंदियणाणं च केवलम्हि जदो । तेण दु सादासादज सुह दुक्खं णत्थि इन्दियजं ।।२७३।। समयट्ठिदिगो बन्धो सादस्सुदयप्पगो जदो तस्स । तेणा सदास्सुदओ सादसरूवेण परिणमदि ।।२७४।। एदेण कारणेण हु सादस्सेव दुणिरन्तरो उदओ। तेणा साद णिमित्ता परीसहा जिणवरे णत्थि।।२७५।। अर्थ :- पहले जो असातावेदनीय बांधी थी उसका असंख्यातबार अनंत का भाग देने के बराबर तक रस घटकर अतिमंद रह गया, और नया असाता का बन्ध होता नहीं है, क्योंकि सप्तम गुणस्थान से आगे एक अकेला सातावेदनीय का ही नया बन्ध होता है, असाता का बन्ध नहीं होता है। केवली के साताकर्म बंधता है, वह भी एक समय की स्थितिरूप ही बंधता है, सो उदय होता हुआ ही बंधता है। इसलिए उनके असाता का उदय भी सातारूप ही परिणमित हो जाता है। भावार्थ :- साता का उदय तो सर्वज्ञ को नवीन निरन्तर अनन्तगुणा रसरूप उदय में आता है, और असातावेदनीय का रस अनन्तवें भाग (घटता हुआ )। जिस प्रकार अमृत से भरे समुद्र को एक विष की कणिका विषरूप करने को समर्थ नहीं होती है, उसी प्रकार सर्वज्ञ के अतितीव्र अनंतगुणा ( बढ़ता हुआ) साताकर्म के रस के उदय में अनन्तवें भागरूप अतिमन्द असाता का उदय कैसे क्षुधा की वेदना उत्पन्न करा सकता है ? इसी कारण से भगवान सर्वज्ञ के निरन्तर साताकर्म का ही उदय है, उसमें किंचित् असाता का उदय भी सातारूप ही परिणम जाता है। इसलिए जिनेन्द्र के असाता का उदयजनित परीषह नहीं है। भगवान केवली के रागद्वेष नष्ट हो गया है तथा इंद्रियजनित ज्ञान का अभाव हो गया है, इसलिये साता-असाता दोनों से उत्पन्न इंद्रियजनित सुख-दुख भी केवली के नहीं है। और भी कहते हैं - अतिमंद उदयरूप असाता अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है। जैसे मन्द उदयरूप संज्वलन कषाय अप्रमत्तादि गुणस्थानों में प्रमाद उत्पन्न नहीं करा सकती है; जैसे अति तीव्र वेद के उदय से उत्पन्न मैथुन संज्ञा मन्द वेद के उदयरूप नवमें गुणस्थान में नहीं है; निद्रा-प्रचला का उदय तो बारहवें गुणस्थान में द्विचरम समय पर्यन्त है; परन्तु उदीरणा बिना निद्रा को नहीं Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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