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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकारी [४६७ अर्थ :- विद्या अर्थात् केवलज्ञान, अनन्तदर्शन तथा अनन्तवीर्य, स्वास्थ्य अर्थात् परमवीतरागता, प्रल्हाद अर्थात् अनन्त सुख, तृप्ति अर्थात् विषयों की निर्वाछकता, शुद्धि अर्थात् द्रव्यकर्म-भाव कर्म की रहितता से आत्म स्वरुप को प्राप्त हुए, निरतिशया अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञानादिगुणों की हीनता-अधिकता से रहित, निरवधयः अर्थात् काल की मर्यादा रहित होते हुए ऐसा जो निर्वाण उसमें निश्रेयस अर्थात् सुखरुप जैसे होते हैं, वैसे रहते हैं। भावार्थ :- धर्म के प्रभाव से आत्मा निःश्रेयस में रहता है। केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तशक्ति, परमवीतरागतारुप निराकुलता, अनन्तसुख, विषयों की निर्वांछकता, कर्ममल रहितता इत्यादि गुणरूप होकर गुणों की हीनाधिकता रहित, काल की मर्यादा रहित, सुखरुप अनन्तानन्त काल तक रहते हैं। काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या । उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटु : ।।१३३।। अर्थ :- अनन्तानन्त कल्पकाल व्यतीत हो जाने पर भी मुक्त जीवों को विकार अर्थात् स्वरुप के संबंध में अन्यथाभाव नहीं देखा जाता है, न ही प्रमाण से जानने में आता है। तीनों लोकों को संभ्रमन (उलट-पुलट) करने में समर्थ ऐसा कोई उत्पात हो जाने पर भी सिद्धों को विकार नही होता है। निःश्रेयसमधिपन्नास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । निःकिट्टिकालिमाच्छविचामीकरभासुरात्मानः ॥१३४।। अर्थ :- जो निर्वाण को प्राप्त हुए मुक्त जीव हैं वे किट्ट कालिमा रहित, कांतिमान छवि को धारण करनेवाले स्वर्ण के समान, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म रुप मलरहित-दैदीप्यमान होते हुए तीन लोक की शिखामणिरुप लक्ष्मी (शोभा) को धारण करते हैं। समाधि धारक पुरुष स्वर्ग में जाते हैं, ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं : पूजार्थाज्ञैश्वर्यैर्बलपरिजनकामभोगभूयिष्ठ: अतिशयितभुवनद्भुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ।।१३५ ।। अर्थ :- समाधि से उपार्जित सम्यग् धर्म अभ्युदय अर्थात् इन्द्रादि पदवी के रुप में फलता है। कैसा अभ्युदय फलता है ? पूजा ( प्रतिष्ठा), धन, आज्ञा , ऐश्वर्य द्वारा तथा बल, परिकर के लोग, कामभोग की सामग्री की प्रचुरता तीनलोक में नहीं समाती है; तीनलोक में आश्चर्यरुप अभ्युदय इस सम्यक् धर्म का ही फल है। भावार्थ :- तीन लोक में जो देखने में, सुनने में, विचारने में नहीं आता ऐसा अद्भुत अभ्युदय इस सम्यग्धर्म ही का फल है। धर्म के प्रभाव से ही इन्द्रपना अहमिन्द्रपना प्राप्त होता है। सप्तम-सल्लेखना अधिकार समाप्त Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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