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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४६६] अर्थ :- सल्लेखना धारण करके जो जीने की इच्छा करता है कि-दो दिन और जी जाऊँ तो ठीक है, वह जीविताशंसा नाम का अतिचार है १; मरण की इच्छा करना कि-अब मरण हो जाय तो ठीक है, वह मरणाशंसा नाम का अतिचार है २; भय करना कि-देखो मरण में कैसा दुःख होगा, कैसे सहूँगा, वह भय नाम का अतिचार है ३; अपने स्वजन पुत्रपुत्री-मित्र आदि की याद करना, वह मित्रस्मृति नाम का अतिचार है ४; आगामी पर्याय में विषय-भोग-स्वर्गादिकी चाह करना, वह निदान नाम का अतिचार है ५। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने सल्लेखना के पाँच अतिचार कहे हैं। भावार्थ :- सल्लेखना मरण में समस्त प्रकार का त्याग करके, केवल अपने शुद्ध ज्ञायक भाव का अवलम्बन लेकर, समस्त देहादि से ममत्व छोड़कर सन्यास ग्रहण किया, फिर भी जीने की इच्छा करना, मरण की इच्छा करना, भय करना, मित्रों में अनुराग कर याद करना, आगे सुख की इच्छा करना – वे सब परिणामों की उज्ज्वलता नष्ट करके राग-द्वेष–मोह बढ़ानेवाले परिणाम हैं; अतएव वे सभी सल्लेखना को मलिन करनेवाले अतिचार कहे गये हैं। निर्विध्न आराधना को धारण करने से गृहस्थ को स्वर्गलोग में महर्द्धिक देव होना तो पहले वर्णन किया है; पश्चात् संयम धारण करके निःश्रेयस अर्थात् निर्वाण को प्राप्त होता हैं। निःश्रेयस के स्वरुप कहनेवाला श्लोक कहते हैं: निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निःपिबति पीतधर्मा सर्वै र्दुःखैरनालीढः ।।१३०।। अर्थ :- इस प्रकार समाधिमरण धारण करनेवाला सम्यग्दृष्टि अंत समय में सल्लेखना सहित बारह व्रतों को धारण कर लेता है; वह जिनेन्द्र के धर्मरुप अमृत का पानकर तृप्त हो जाता है। पीतधर्मा अर्थात् जिसने धर्म का आचरण पिया है ऐसा धर्मात्मा श्रावक अभ्युदय अर्थात् स्वर्ग का महद्धिक देवपना असंख्यात काल तक भोगकर, फिर मनुष्यों में उत्तम राज्यादि वैभव पाकर, फिर संसार-शरीर-भोगों से विरक्तहोकर, शुद्ध संयम अंगीकार करके निःश्रेयस जो निर्वाण है, उसे निःपिबति अर्थात् आस्वादन करता है, अनुभव करता है। कैसा है निःश्रेयस ? निस्तीर अर्थात् जिसके किनारे का कोई अंत नही है तथा दुस्तर है अर्थात् जिसका पार नहीं है, तथा सुख जल का समुद्र है ऐसे निर्वाण को समस्त दुःखों से अस्पृष्ट रहता हुआ भोगता है। आगे और भी निःश्रेयस का स्वरुप कहते है:___ जन्मजरामयमरणैः शोकैः दुखैः भयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्ध सुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।।१३१।। अर्थ :- जन्म, जरा, रोग, मरण से रहित; शोक, दुःख, भय से रहित; नित्य, अविनाशी, समस्त पर का संयोग रहित; केवल शुद्ध , सुख स्वरुप जो निर्वाण है, उसे निःश्रेयस कहते हैं। विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थ्यप्रह्लादतृप्तिशुद्धियुजः । निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् ।।१३२।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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