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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४५८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अतिभार लादने का, नासिका छेदने का, रस्सियों से बांधने का घोर दुःख है। जिनका स्वाधीन खान-पान चलना-बैठना-उठना नहीं है, जो किसी को अपना सुख-दुःखरुप अभिप्राय बतलाकर कुछ उपाय उद्यम नहीं कर सकते है, किसके घर पर नहीं रहना है - वह इनके आधीन नहीं है। चांडाल म्लेच्छ निर्दयी के यहाँ पर भी रहना है, ब्राह्मणादि के आधीन भी रहना है। कोई अनेक प्रकार से पीटता है, त्रास देता है, कोई आहार पानी नहीं देता है, थोड़ा देता है और भार बहुत लादता है तो किसी राजादि के पास जाकर पुकार (शिकायत) करने की सामर्थ्य नहीं है; कोई दया करके रक्षा नहीं कर सकता है। नाक गल जाती है, कंधा छिल-गल जाता है, पीठ कट जाती है, हजारों कीड़े पड़ जाते हैं तो भी पत्थरों आदि का कठोर भार लादना; तथा ऐसी दशा में जब नहीं चला जा सकता है, बोझा नहीं ढोया जा सकता है तब मर्म स्थानों में चमड़े तथा लोहे की तीक्ष्ण आरियों से लाठियों से घात किया जाना व गालियाँ देकर दुःखी करके जबरदस्ती से चलाना; नासिका आदि मर्म स्थानों में रस्सी, सांकल , चमड़े के नाड़े आदि से इस तरह बांधना जिससे हलन-चलन नहीं कर सकें – ऐसे तिर्यंचों के दुःख प्रत्यक्ष देखते ही हो, तुम्हारे लिये कितना सा दुःख है ? जलचर, नभचर, वनचर जीव परस्पर भक्षण कर लेते हैं, छिपे हुओं को ढूंढ-ढूँढ कर मारते हैं निर्बल को सबल भक्षण कर लेते हैं। शिकारी, भील, धीवर, बहेलिया – ये तो जानवरों को देखते - ही साथ जहाँ भागकर जाता है, वहीं से पकड़कर ले आते हैं, मार डालते हैं, चीर देते हैं, टुकड़ों में बनाकर रांध देते हैं, भर्त्त देते हैं, इनकी कौन दया करे ? जिन्होंने पूर्व जन्म में दया धर्म नहीं धारण किया, धन के लोभी होकर अनेक झूठ-कपटछल किये उसका फल तिर्यंचगति में उदय में आता है, वह सब अब विचार करो। मनुष्यगति के दु:ख मनुष्यों में इष्ट के वियोग का घोर दुःख है, दुष्ट-अनिष्ट के संयोग होने का दुःख, निर्धन होने का, परधीन होने का, बन्दीगृह में पड़ने का, अपमान होने का, मारपीट-त्रास होने का, अंधा बहरा गूंगा लूला लंगड़ा होने का, भूख-प्यास भोगने का, शीत-उष्ण-आताप आदि भोगने का , नीचकुल नीच क्षेत्र आदि में उत्पन्न होने का , अंग-उपांग गल जाने का सड़ जाने का, वांछित आहार नहीं मिलने का इत्यादि अनेक घोर दुःख भोगे हैं उनका विचार करो। यहाँ अभी तुम्हारे लिये कितना सा दुःख है ? नरक-तिर्यंचों के दुःख तो अपार हैं ही, परन्तु पाप के उदय से अज्ञानी भाव से कषाय के वश में पड़े जीव के मनुष्य गति में भी मानसिक दुःख भी अपार हैं। कर्मबड़ा बलवान है। जिन के वचन ही मस्तक में तीक्ष्ण शूल (भयंकर दर्द ) के समान कष्ट देते हैं ऐसे महादुष्ट, निर्दयी, महावक्र अन्यायमार्गी के साथ शामिल रहने को कर्म ने उत्पन्न करा दिया उनका त्रास रात-दिन भोगना पड़ता है, हमेशा भयवान बना रहना पड़ता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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