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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार]
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नरक गति के दुःख नरक में जो दुःख की सामग्री है उसकी जाति की इस लोक में है ही नही, कैसे दिखाई जाये ? भगवान केवलज्ञानी ही जानते हैं। वहाँ पाँचवें नरक तक के उष्ण बिलों में उष्णता तो ऐसी है कि यदि सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला छोड़ो तो जमीन तक पहुँचते-पहुँचते पानी होकर बह जाय। यहाँ तुम्हारे लिये रोगजनित कितनी सी गर्मी है ? पाँचवें नरक के तीसरे भाग में तथा छठवें-सातवें नरक के बिलों में ऐसी शीत है कि सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला शीत से छार-छार होकर बिखर जाये। ऐसी वेदना इस जीव ने चिरकाल पर्यन्त भोगी है।
यहाँ मनुष्य जन्म में ज्वर आदि रोगजनित, तृषा से उत्पन्न, ग्रीष्म कल से उत्पन्न उष्ण वेदना, तथा शीत ज्वरादि से उत्पन्न, शीतकाल से उत्पन्न शीत वेदना कितनी सी है ? थोड़े ही समय तक रहेगी। अतः धर्म के धारक, ममत्व के त्यागियों को क्या यह वेदना समभावों से नहीं भोग लेनी चाहिये ? यह अवसर तो समभावों से परिषह सहने का ही है। यदि क्लेशभाव करोगे तो कर्म का उदय छोड़नेवाला नहीं है, भागकर कहाँ जाओगे ? यदि अपघात आदि से मरोगे तो नरकों में अनन्तगुणी वेदना असंख्यात काल तक भोगोगे। वहाँ तो पाप के उदय से नारकियों के स्वभाव से ही शरीर में करोड़ो रोग हमेशा ही रहते हैं।
नरक की भूमि का स्पर्श ही करोड़ों बिच्छुओं के डंक से अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला है। नारकियों को क्षुधा वेदना इतनी है की सम्पूर्ण पृथ्वी का अन्नादि खा लेने पर भी शान्त नहीं हो, किन्तु खाने के लिये एक दाना भी नहीं मिलता है। तृषा वेदना इतनी अधिक है कि सभी समुद्रों का जल पी लेने पर भी नहीं बुझे , किन्तु पीने के लिये पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती है।
नरक की पृथ्वी के पहले पटल की मिट्टी इतनी महा कड़वी दुर्गंधमय है कि यदि उसका एक कण इस मनुष्यलोक में आ जाय तो आधा कोस तक के पंचेन्द्रिय मनुष्य-तिर्यंच दुर्गंध से मर जायेंगे। इसी प्रकार एक-एक पटल से आधा-आधा कोस बढ़ते हुए, सातवीं पृथ्वी के उनचासर्वे पटल की मिट्टी में इतनी दुर्गध है कि यदि उसका एक कण यहाँ आ जाये तो साढ़े चौबीस कोस तक के पंचेन्द्रिय मनुष्य तिर्यच दुर्गंध से प्राणरहित हो जायेंगे। इसी प्रकार का वरुप शब्द (आवाज) के अनभव का दःख भी वचनों के अगोचर है, केवली ही जानते हैं।
बहुत आरम्भ-बहुत परिग्रह के भाव से , सप्त व्यसन के सेवन से , अभक्ष्यों के भक्षण से, हिंसादि पाँच पापों में तीव्र राग से, निर्माल्य भक्षण से, ऐसे घोर दुःखो को भोगने का पात्र नारकी होता है। नारकियों को अपार मानसिक दुःख होता है। नारकियों का शारीरिक दुःख, क्षेत्र जनित दुःख, परस्पर किया हुआ दुःख असुरकुमारों द्वारा उत्पन्न कराया दुःख वचने के कहने के गोचर नहीं है उसका विचार करो। नरक में आयुपूर्ण हुए बिना मरण नहीं होता है।
तिर्यचगति के दुःख तिर्यंचों के पाप के उदय से जो तीव्र दुःख होते हैं, वे प्रत्यक्ष देखते ही हैं, वर्णन कितना करें ? तिर्यंचगति में पराधीनता का दुःख, वचनरहितपना, क्षुधा-तृषा-शीत-उष्णता का दुःख ताड़ना का ,
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