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________________ ४५४] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अतः अब सावधान होकर धर्म की शरण ग्रहण करके कर्मजनित वेदना के ऊपर विजय प्राप्त करो। ऐसा अवसर अनन्त भवों में भी नहीं मिला है। यह किनारे पर पहुँची नाव है, यदि अब प्रमादी रहोगे तो डूब जायेगी। समस्त पर्याय में (जीवन भर ) जो ज्ञान का अभ्यास किया, श्रद्धान की उज्ज्वलता की, तप-त्याग - नियम धारण किये, वे सब इसी अवसर के लिये धारण किये थे। अब यदि अवसर आ जाने पर भी शिथिल होकर भ्रष्ट हो जावोगे तो भ्रष्ट हो गये। समताभाव छोड़ देने से रोग, वेदना, तथा मरण तो टलेगा नहीं, अपनी आत्मा को केवल दुर्गतिरुप अन्ध कीच में डुबो दोगे। जैसे लोक में मरी रोग आ जाय, दुर्भिक्ष आ जाय, भयानक गहन वन में प्रवेश हो जाय, दृढ़ भय आ जाय, तीव्र रोग वेदना आ जाय, तो उत्तम कुल उत्पन्न पुरुष सन्यास मरण अंगीकार कर लेते है, परन्तु नीच पुरुषों के समान निंद्य आचरण कभी नहीं करते हैं। मरी के भय से मदिरा नहीं पीते है; दुर्भिक्ष आ जाय तो मांस भक्षण नहीं करते हैं, कांदा (कंद, आलू आदि) नहीं खाते हैं; नीच, चांडाल आदि की जूठन नहीं खाते है । भय आ जाय तो म्लेच्छ-भील नहीं हो जाते हैं, हिंसादि कुकर्म नहीं करने लगते हैं । उसी प्रकार रोगादि का प्रबल कष्ट होने पर भी श्रावक धर्म का धारक जिनधर्मी कभी अपने भावों को विकाररुप नहीं करता है। धर्म की, त्याग की, व्रत की, साधर्मी की प्रभावना का इच्छुक होकर जो अन्त समय में अपने श्रद्धान, ज्ञान आचरण की उज्ज्वलता रखते हैं उनका ही जन्म सफल होता है, व्रत, तप, धर्म सफल होता है, जगत में प्रशंसा प्राप्त होती है, मरण करके उत्तम देवों में उत्पन्न होते हैं । - मनुष्य पर्याय में उत्तमपना भी ये ही है कि घोर आपदा वेदना आने पर भी सुमेरु पर्वत के समान अचल रहते हैं, समुद्र के समान क्षोभरहित रहते हैं । हे धर्म के आराधक ! तुम अति घोर वेदना के आने पर भी आकुलित नहीं होना । इस कलेवर (शरीर ) से भिन्न अपने ज्ञायक भाव का अनुभव करना। तीव्र वेदना आने पर भी पूर्व में वेदना को जीतनेवाले हो गये उत्तम पुरुषों का ध्यान करो। हे आत्मन्! पूर्व में जो साधु पुरुष सिंह - व्याघ्र आदि दुष्ट जीवें की दाड़ो द्वारा चबा लिये जाने पर भी आराधना में लीन ही हुए, तुम्हारे लिये कितनी सी वेदना है ? मुनियों पर आये उपसर्ग के उदाहरण सुकुमाल स्वामी अत्यन्त कोमल शरीर के धारी व तत्काल के दीक्षित ऐसे मुनि को स्यालनी ने अपने दो बच्चों के साथ तीन रात्रि - तीन दिन तक पैरों से भक्षण करना प्रारंभ किया, जब पेट फाड़ा तब मरण हुआ। ऐसे घोर उपसर्ग को परम धैर्य धारण कर सहकर उत्तम प्रयोजन ( समाधिमरण ) सिद्ध किया, तुम्हारे लिये कितनी-सी वेदना है। सुकौशल स्वामी की माता के जीव ने व्याघ्री होकर उन्हें खा डाला, तो भी वे उत्तमार्थ (समाधिमरण) से नहीं चिगे, तुम्हारे लिये कितनी सी वेदना है ? Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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