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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार] [४५१ बड़े प्रबल बल के धारक चक्रवर्ती,नारायण , बलभद्र आदि को भ्रष्ट करके अपने आधिन किया है, अतः अत्यन्त प्रबल हैं। संसार में जितने भी दुःख है वे सभी विषयों के लम्पटी, अभिमानी तथा लोभी को होते हैं। कितने ही जीव जिनदीक्षा धारण करके भी विषयों की आताप से भ्रष्ट हो जाते हैं, अभिमान व लोभ नहीं छोड़ सकते हैं। अनादिकाल से विषयों की लालसा से लिप्त व कषायों से प्रज्ज्वलित संसारी जीव अपने को भूलकर स्वरुप से भ्रष्ट हो रहे हैं। विषय-कषायों से छूटकर वीतरागता कराने के लिये श्री भगवती आराधना जी शास्त्र में विषय-कषायों का स्वरुप विस्तार से परम निर्ग्रन्थ श्री शिवायन नाम के आर्चार्य ने प्रकट दिखाया है। वीतरागता के इच्छुक पुरुषों को ऐसा परम उपकार करनेवाले ग्रन्थ का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये। समाधिमरण के समय में जीव का कल्याण करनेवाला उपदेशरुप अमृत की सहस्त्रधारा रुप होकर वर्षा करता हुआ भगवती आराधना नाम का ग्रन्थ है, उसकी शरण अवश्य ग्रहण करने योग्य है। इसलिये यहाँ पर आराधनामरण ( समाधिमरण) के कथन करने का अवसर पाकर भगवती आराधना के अर्थ का अंश लेकर लिख रहे हैं। यहाँ ऐसा विशेष जानना : साधु ( मुनियों) पुरुषों को तो रत्नत्रय धर्म की रक्षा करने में सहायक आचार्य आदि का संघ तथा वैयावृत्य करनेवाले धर्म का उपदेश देनेवाले निर्यापकों की बड़ी सहायता प्राप्त हो जाती है । इसलिये गृहस्थों को भी धर्मवृद्ध-श्रद्धानी-ज्ञानी साधर्मियों का समागम अवश्य बनाये रखना चाहिये। परन्तु यह पंचमकाल अति विषम है। इसमें तो विषयानुरागियों तथा कषायी जीवों का साथ मिलना सुलभ है; राग-द्वेष-शोक-भय उत्पन्न करानेवाले , आर्तध्यान बढ़ानेवाले, असंयम में प्रवृत्ति करानेवालों का ही साथ बन रह है। स्त्री, पुत्र, मित्र, बांधव आदि सभी अपने राग-द्वेष विषयकषायों में लगाकर आत्मा को भुला देनेवाले हैं। सभी अपने विषय-कषाय पुष्ट करने के ही इच्छुक हैं। धर्मानुरागी, धर्मात्मा, परोपकारी, वात्सल्यता के धारी, करुणा रस से भीगे पुरुषों का संगम महा उज्ज्वल पुण्य के उदय से मिलता है; तथापि अपने पुरुषार्थ से उत्तम पुरुषों के उपदेश का संगम मिलाना चाहिये। स्नेह और मोह के जाल में उलझानेवाले धर्म रहित स्त्रीपुरुषों का साथ दूर से ही छोड़ देना चाहिये। परवशता से कोई कुसंगी आ जाय तो उससे बात करना छोड़ कर मौन होकर रहना। अपने कर्मोदय के आधीन देश-काल के योग्य जो स्थान प्राप्त हुआ हो उसी में रहकर शयन, आसन, अशन करना। जिनशास्त्रों की परमशरण ग्रहण करना, जिनसिद्धान्तों का उपदेश धर्मात्माओं से सुनना। त्याग, संयम, शुभध्यान, भावनाओं को विस्मरण नहीं करना; क्योंकि धर्मात्मा-साधर्मी भी अपने तथा दूसरों के धर्म की पुष्टता चाहते है; धर्म की प्रभावना चाहते हुए धर्मोपदेशादि रुप वैयावृत्य में आलसी नहीं होना; त्याग ,व्रत, संयम, शुभध्यान, शुभभावना में ही आराधक साधर्मी को लीन करना चाहिये। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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