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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४५०] उसे उत्तर देते हैं - जिसके द्वारा बहुत समय तक अच्छी तरह से मुनिपना, श्रावकपना व महाव्रत अणुव्रत पलते दिखाई दें; स्वाध्याय, ध्यान, दान, शील, तप, व्रत, उपवास आदि पलता हो; जिन पजन. स्वाध्याय. धर्मोपदेश. धर्मश्रवण. चारों आराधनाओं का सेवन अच्छी तरह निर्विघ्न सधता हो; दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं आया हो; शरीर में असाध्य रोग नहीं आया हो; स्मरण शक्ति व ज्ञान को नष्ट करनेवाला बुढ़ापा भी नहीं प्राप्त हुआ हो; दशलक्षण धर्म तथा रत्नत्रयधर्म देह से पलता हो उसे आहार त्यागकर समाधिमरण करना योग्य नहीं है। जिससे धर्म सधता होने पर भी यदि वह आहार त्यागकर मरण करता है; तो वह धर्म से पराङ्मुख होकर त्याग, व्रत, शील, संयम आदि द्वारा मोक्ष की साधक उत्तम मनुष्य पर्याय से विरक्त हुआ अपनी दीर्घ आयु होने पर भी व धर्म सेवन करते बनने पर भी आहारादि का त्याग करनेवाला आत्मघाती होता है । भगवान की ऐसी आज्ञा है कि धर्म संयुक्त शरीर की बड़े यत्न से रक्षा करना चाहिये। यदि धर्म सेवन की सहकारी इस देह को आहार त्याग करके छोड़ देगा तो क्या नारकीतिर्यचों की संयम रहित देह से व्रत-तप-संयम सधेगा? रत्नत्रय की साधक तो यह मनुष्य देह ही है। जो धर्म की साधक मनुष्य देह को आहारादि त्यागकर छोड़ देता है उसका क्या कार्य सिद्ध होता है ? इस देह को त्यागने से हमारा क्या प्रयोजन सधेगा ? व्रत-धर्म रहित और दूसरा नया शरीर धारण कर लेगा। अनन्तानन्त देह धारण करवाने का बीज तो कर्ममय कार्माण देह है, उसको मिथ्यात्व, असंयम, कषायादि का त्याग करके नष्ट करो। आहारादि का त्याग करने से तो औदारिक हाड़-मांसमय शरीर मरेगा, जो तुरन्त नया दूसरा प्राप्त हो जायेगा। जब अष्ट कर्ममय कार्माण देह मरेगा तब जन्ममरण से छूटोगे। अतः कर्ममय देह को मारने के लिये इस मनुष्य शरीर द्वारा त्याग-व्रत-संयम में दृढ़ता धारण करके आत्मा का कल्याण करो। जब धर्म सधता नहीं दिखाई दे तब ममत्व छोड़कर अवश्य ही विनाशीक देह को त्याग देने में ममता नहीं करना। कषाय सल्लेखना : जैसे तपश्चरण से काया को कृश किया जाता है वैसे ही रागद्वेष-मोहादि कषायों को भी साथ-साथ ही कृश करना वह कषाय सल्लेखना है। बिना कषायों की सल्लेखना किये काय सल्लेखना व्यर्थ है। काय का कृशपना तो रोगी, दरिद्री, पराधीनता से मिथ्याद्दष्टि के भी हो जाता है। देह को कृश करने के साथ ही साथ रागद्वेष-मोहादि को कृश करके, इसलोक-परलोक संबंधी समस्त वांछा का अभाव करके, देह के मरण में कुटुम्ब-परिग्रहादि समस्त पर द्रव्यों से ममता छोड़कर, परम वीतरागता से संयम सहित मरण करना वह कषाय सल्लेखना है। यहाँ ऐसा विशेष जाननाः जो विषय-कषायों को जीतनेवाला होगा उसी में समाधिमरण करने की योग्यता है। विषयों के आधीन तथा कषाय युक्त के समाधिमरण नहीं होता है। संसारी जीवों के ये विषय-कषाय बड़े प्रबल हैं, बड़े-बड़े सामर्थ्यधारियों द्वारा नहीं जीते जा पाते हैं। इन्होंने Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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