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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकारी
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यदि मरण के अवसर में भी ममता, भय, द्वेष, कायरता, दीनता नहीं छोड़ोगे तो जो इतने समय तक तप किये, व्रत पाले , श्रुत का अध्ययन किया वे सभी निरर्थक हो जायेंगे । इसलिये इस मरण के अवसर में सावधानी नहीं छोड़ो। जीर्ण शरीर से प्रीति करना अच्छा नहीं हैं :
अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत्प्रीतिरिति हि जनवादः ।
चिरतरशरीरनाशे नवतरलाभे च किं भीरु: ।।१७।। अर्थ :- लोगों का ऐसा कहना है कि जिस वस्तु का अतिसेवन-अतिपरिचय हो जाता है उसमें अवज्ञा-अनादर होने लगता है, रुचि घट जाती है; जिसका नया साथ होता है उसमें अधिक प्रीति होती है, यह बात प्रसिद्ध है; किन्तु हे जीव! तुमने इस शरीर का बहुत समय से सेवन किया है, अब इसका नाश होने पर तथा नये शरीर की प्राप्ति होने से क्यों डर रहे हो ? भय करना उचित नहीं है।
भावार्थ :- जिस शरीर को बहुत काल तक भोगकर जीर्ण कर दिया, साररहितबलरहित कर दिया, तथा नवीन उज्ज्वल देह धारण करने का अवसर आया है तो अब भय क्यों करते हो? यह जीर्ण तो नष्ट ही होगा। इसमें ममता धारण करके मरण बिगाड़कर दुर्गति का कारण कर्मबन्ध नहीं करना चाहिये। समाधिमरण से उत्तमगति की प्राप्ति होती है:
स्वर्गादित्यपवित्रनिर्मलकुले संस्मर्यमाणा जनैः । दत्वा भक्तिविधायिनां बहुविधं वाञ्छानुरुपं धनम् । भुक्त्वा भोगमहर्निशं परकृतं स्थित्वा क्षणं मण्डले ।
पात्रावेशविसर्जनामिव मतिं सन्तो लभन्ते स्वतः ।।१८।। अर्थ :- इस प्रकार जो भय रहित होकर समाधिमरण में उत्साह सहित चार आराधनाओं का आराधन कर मरण करता है उसे स्वर्गलोक के बिना अन्य गति की प्राप्ति नहीं होती है, स्वर्गों में महर्द्धिक देव ही होता है, ऐसा निश्चय है, स्वर्ग में आयु के अंत तक महासुख भोगकर इस मनुष्य लोक में पुण्यवान निर्मल कुल में अनेक लोगों द्वारा इन्तजार करते-करते जन्म लेकर, अपने सेवकजनों तथा कुटुम्ब-परिवार-पुत्र-मित्रादि जनों को अनेक प्रकार के इच्छित धन भोगादिरुप फल देकर, पुण्य से प्राप्त भोगों को निरन्तर भोगकर, आयु पूर्ण होने तक थोड़े समय को पृथ्वीमंडल पर संयमादि सहित वीतरागरुप होकर विहार करके, जैसे नृत्य के अखाड़े में नृत्य करनेवाला पुरुष लोगों को आनंद उत्पन्न करके चला जाता है, उसी प्रकार वह सत्पुरुष भी सभी लोगों को आनंद उत्पन्न करके स्वयं ही देह त्याग करके निर्वाण को प्राप्त हो जाता है ।१८ ।
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