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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार]
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ही क्षुधा, शीत, उष्ण, भय आदि उत्पन्न करनेवाला है; महा कृतघ्न है, अवश्य विनाशीक है; आत्मा को समस्त प्रकार का दुःख क्लेशादि उत्पन्न करनेवाला है; दुष्ट की संगति की तरह त्यागने योग्य है; समस्त दुःखों का बीज है; महासंताप उद्वेग को उत्पन्न करनेवाला है; सदाकाल भय उत्पन्न करनेवाला है; बंदीगृह के समान पराधीन करनेवाला है, दुःखों की जितनी भी जातियाँ हैं वे सब इसका साथ होने से भोगना पड़ती हैं ।
आत्मा के स्वरुप को भुलानेवाला, चाह की दाह को उत्पन्न करनेवाला, महामलिन, कृमि के समूहों से भरा हुआ महादुर्गन्धमय; दुष्ट भ्राता के समान नित्य क्लेशों को उत्पन्न करने में समर्थ; अनमारण शत्रु - जैसे देह का वियोग होने का क्या शोक करना ? इसलिये ज्ञानी शोक को छोड़ देते हैं; मरण का भय नहीं करते हैं; विषाद, स्नेह, कलुषपना तथा अरतिभाव को छोड़कर उत्साह व धैर्य प्रकट करके श्रुतज्ञानरुप अमृत को पीकर मन को तृप्त करते हैं।
__ अब इसी श्लोक के अर्थ की पुष्टि करने के लिये मृत्यु महोत्सव का पाठ यहाँ अठारह श्लोकों में उपकारी जानकर अर्थ सहित लिखते हैं ।
मृत्यु महोत्सव पाठ मृत्युमार्गे प्रवृतस्य वीतरागो ददातु मे ।
समाधिबोधौ पाथेयं यावन्मुक्तिपुरौ पुरः ।।१।। अर्थ :- हे वीतराग भगवन् ! मैं मृत्यु के मार्ग पर हूँ । मुझे आप समाधि अथात् स्वरुप की सावधानी, तथा बोधि अर्थात् रत्नत्रयरुप पाथेय अर्थात् परलोक के मार्ग में उपकारक - भोजनरुप वस्तु प्रदान करें; जिससे मैं मुक्तिपुरी तक पहुँच जाऊं, ऐसी प्रार्थना करता हूँ।
भावार्थ :- मैंने अनादिकाल से अनन्त कुमरण किये हैं, जिन्हें सर्वज्ञ वीतराग देव ही जानते हैं। मैंने एकबार भी सम्यङ्मरण नहीं किया, यदि सम्यक्मरण किया होता तो फिर संसार में मरण का पात्र नहीं होता।
जहाँ देह तो मर जाय; किन्तु आत्मा का सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाव विषयकषायों द्वारा नहीं पाता जा सके वह सम्यङ्मरण हैं। जहाँ मिथ्या श्रद्धानी होकर देह के नाश को ही अपनी आत्मा का नाश जानकर संक्लेश पूर्वक मरण करना है, वह कुमरण है ।
मिथ्यादर्शन के प्रभाव से मैंने देह को ही आत्मा मानकर अपने ज्ञान-दर्शन स्वरुप का घात करके अनन्त परिवर्तन किये हैं। अब आप वीतराग भगवान से ऐसी प्रार्थना करता हूँ कि मेरा मरण के समय वेदना मरण व आत्मज्ञान रहित कुमरण नहीं होवे। सर्वज्ञ वीतराग की शरणसहित संक्लेशरहित धर्मध्यान पूर्वक सम्यङ्मरण चाहता हूँ, इसलिये वीतरागी की ही शरण ग्रहण करता हूँ। अब मैं अपने आत्मा को समझाता हँ- आत्मा ज्ञान शरीरी है:
कृमिजालशताकीर्णे जर्जरे देहपिञ्जरे । भज्यमाने न भेतव्यं यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः ।।२।।
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