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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४३६] यहाँ ऐसा जानना : सन्यास के समय को जानकर परिग्रह का त्याग कर देना चाहिये। प्रथम तो किसी का ऋण देना हो तो वह देकर ऋण रहित हो जाय। किसी की धन, जमीन-जायदाद आपने अनीति से ली हो वह उसे वापिस देकर, उसे संतुष्ट करके, अपने अपराध की क्षमा मांगकर, अपनी निंदा-गर्दा करे। जो धन-परिग्रह शेष रहे उसका बंटवारा करके, देकर निराकुल हो जाये। स्त्री का हिस्सा स्त्री को देवे, पुत्रों का हिस्सा पुत्रों को देवे, पुत्री का हिस्सा पुत्री को देवे। दुःखी, दीन, अनाथ, विधवा ऐसा कोई आपके आश्रित बहिन, भुआ, बन्धु इत्यादि हो तो उनका धन भी देकर समस्त परिग्रह त्याग कर ममता रहित होकर शरीर को संवारना आदि का त्याग करे। स्त्री, पुत्र, गृह आदि समस्त कुटुम्ब में, शैय्या, आसन, वस्त्रादि में ममता छोड़ दे। अब इनका और हमारा कितने समय का संबंध है ? जिस देह के संबंध से इन सबसे संबंध था, उस देह को ही जब हम छोड़ रहे हैं तब देह के संबंधियों से हमें कैसी ममता ? अब हमारे आत्मा का संबंध तो अपने स्वभावरुप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से है जो हमारा निज स्वभाव है। देह तो चाम, हाड़, मांस, रुधिरमय, कृतघ्न हैं, जड़ है; ये हमारी नहीं, हम इसके नहीं, देह विनाशीक है, हमारा रुप अविनाशी है। हमे तो अज्ञान भाव के कारण इस देह से ममता रही, जिससे अशुभ कर्मो का ही बंध किया। अब इस देह के संबंध के नाश की इच्छा करता हूँ । देह के ममत्व से ही अनन्त जन्म - मरण हुए हैं, तथा संसार में जितने दु:खों के प्रकार हैं वे सब मुझे देह के संयोग से ही हुए हैं। राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि की उत्पत्ति का कारण भी एक इस देह का संबंध ही है । इस प्रकार देह से विरागता को प्राप्त होकर दृढ़ता पूर्वक समस्त व्रतों को धारण करे । अब आगे क्या करना चाहिये, वह श्लोंक द्वारा कहते हैं : शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्वोत्साहमुर्दीय च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतैः ।।१२६ ।। अर्थ :- सन्यास के समय में शोक, भय, विषाद, क्लेष, कलुषता, अरति आदि भावों को छोड़कर कायरपना का अभाव करना चाहिये; अपने आत्म सत्व का प्रकाश ( अनुभव, ज्ञान) करके शास्त्रज्ञानरुप अमृत के द्वारा मन को प्रसन्न रखना चाहिये । भावार्थ :- अनादिकाल से ही इस संसारी की पर्याय में आत्मबुद्धि हो रही है। तथा पर्याय के नाश को ही अपना नाश मान रहा है। जब पर्याय का नाश होना, तथा धन, परिग्रह, स्त्री, पुत्र, मित्र, बांधव आदि समस्त संयोग का वियोग होता दिखाई देता है तब मिथ्यादृष्टि को बड़ा शोक उत्पन्न होता है। सम्यग्दृष्टि को शोक उत्पन्न नहीं होता है। वह तो ऐसा विचार करता है – हे आत्मन्! पर्यायें तो अनन्तानन्त प्राप्त हो-होकर छूट गई है। यह शरीर तो रोगों की उत्पत्ति का स्थान है; नित्य Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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