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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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हैं; अनेक सुगंधित पुष्प व महासुगंध युक्त धूप की गंध फैल रही है; परन्तु उन सबसे अधिक जिनेन्द्र के शरीर की सुगंध से सभी दिशाये सुगंधित हो रही है, इसीलिये इसे गंधकुटी कहते हैं। सुगंध की , कांति की और शोभा की यह तीन लोक में परम हद्द है।
छह सौ धनुष की चौकोर गंधकुटी के बीच में एक योजन ऊँचा सिंहासन है। उस सिंहासन की कांति, किरण समूह व सौदर्य का वर्णन करने में कोई समर्थ नहीं है। उस सिंहासन के ऊपर चार अंगुल का अंतर छोड़कर, अपनी महिमा के अनुसार ही सिंहासन को स्पर्श किये बिना ही जिनेन्द्र विराजमान है। वहाँ पर विराजमान जिनेन्द्र की इन्द्रादि देव अत्यन्त भक्ति पूर्वक पूजन, स्तवन, वन्दना करते हैं।
देवरुप मेघों के द्वारा कल्पवृक्षों के अत्यन्त सुगन्धित पुष्पों की वृष्टि बारह योजन के सम्पूर्ण समोशरण में हो रही है। एक योजन के श्रीमण्डप के ऊपर रत्नमय अशोकवृक्ष सभी
ो रहे हैं: उनके मरकतमणिमय हरित पत्र है. अनेक प्रकार के मणिमय पुष्पों से भूषित हैं, पवन से मन्द-मन्द हिलती शाखायें मानो नृत्य कर रही हैं, मदोन्मत्त कोकिल और भ्रमर अपने शब्दों द्वारा जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन कर रहे हैं। एक योजन लम्बी अपनी शाखाओं द्वारा सभी जीवों का शोक दूर कर रहे हैं, सभी दिशाओं को अपनी डालियों से ढांक रहे हैं। हीरामय पेड़ हैं उनसे जपापुष्प समान रत्नों के पुष्प बरस रहे हैं।
तीन छत्र अपनी कांति की उज्ज्वलता से सूर्य चन्द्रमा दोनों की प्रभा का तिरस्कार करते हुये, अद्भूत त्रैलोक्य के पदार्थों की प्रभा को जीतते हुये, मोतियों की झालर युक्त हैं। तीन लोक की लक्ष्मी के हास्य का पुंज है, या धर्मरुप राजा को तीनलोक को आनंदित करने का हर्ष है या मोह को जीतने से उत्पन्न प्रभु के यश का यह पुंज है। इस प्रकार तर्कणा उत्पन्न करते तीन छत्र शोभायमान हैं।
जब तक जिनेन्द्रदेव विराजमान रहेंगे तब तक सेवा करनेवाले यक्ष देवों के हाथों के समूह से चलायमान चौंसठ चमर प्रकट शोभायमान हैं। वे चमर ऐसे दिखते हैं मानो क्षीर समुद्र की लहरों की पंक्ति ही है, अमृत के खण्डों से ही बने हैं, चन्द्रमा की किरणों का समूह ही है, जिनेन्द्र की सेवा के लिये चमरों के रुप में गंगा ही आई है, जिनेन्द्र के अंग की द्युति ही है, क्षीर समुद्र के झागों की पंक्ति ही हवा से हिल रही है, आकाश से गिरती हुई हंसों की पंक्ति ही है, तथा भगवान का उज्ज्वल यश ही चारों तरफ फैल रहा है। ऐसे शोभनीय चौंसठ चमर दुर रहे हैं।
वहाँ पर देवदुन्दभि आकाश में मेघों के आगमन की शंका उत्पन्न करती हुई कानों को अमृत की तरह सींचती हुई मीठे शब्द कर रही है। देवलोक के अनेक जाति के वादित्र अनेक प्रकार की ध्वनियों द्वारा समस्त दिशाओं को पूर्ण करते हुए मेघ की गर्जना के समान समस्त लोक में व्याप्त होते हुए भगवान ने मोह को जीत लिया है, अतः उसके आनंद के शब्द लोगों के हृदय में प्रकट हो रहे हैं।
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