________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[३८९
जिन्हें स्वच्छन्द फिरना खाना नहीं; गरमी में बंधे हैं, वर्षा में बंधे हैं, शीत में बंधे है, पराधीन क्या करें ? उन पर बहुत बोझा लादते हैं, मार मारते हैं, तीक्ष्ण लोहा और काँटा चुभाते हैं, चमड़े के चाबुक से रास्ते में बारंबार मारते हैं, लाठी लकड़ी की चोट से मरम स्थानों में मारते हैं।
पीठ गल जाती है, मांस कट जाने से गढ्ढा पड़ जाता है, कंधे गल जाते हैं, नाक गल जाती है; कीड़े पड़ जाते हैं तो भी पत्थर, लकड़ी, धातुओं का कठोर भार लादते हैं जिससे हाड़ों का चूरा बन जाता है; पैर टूट जाते हैं, बहुत रोगी हो जाता है, उठा नहीं जाता है, जरा से जरजर हो जाता है; पीठ गल जाती है तो भी बहुत भार लादते हैं, बहुत दूर ले जाते हैं, भूख-प्यास-रोग-गरमी की वेदना नहीं गिनते हैं। आधी रात हो जाने पर भी बहुत भार लाद देते हैं और दूसरे दिन के तीन प्रहर व्यतीत हो जाने पर भार उतारते हैं। कुछ घास, काँटा, तुस, भुस, कणरहित, नीरस, थोड़ा-सा आहार मिलता है। वह भी पेटभर नहीं मिलता है। पराधीनता का दु:ख तिर्यंचगति समान और नहीं है।
निरन्तर बंधन में पिंजरे में घोर दुःख भोगते हैं, चांडाल के दरवाजे पर बंधा रहे .चमार कषायियों के दरवाजे पर बंधा रहै, खाने को नहीं मिलता है। अन्य पुण्यवानों के दरवाजे पर बंधे तिर्यंचों को खाते देखकर मानसिक दुःख होता है। दूसरों के आहार-घास में मुख चलाते हैं तो पसलियों में बड़ी लाठियों से मारते हैं। बहुत घोर क्षुधा का दुःख भोगते हैं। रास्ता चलने का , बोझा ढोने का, रोगों का घोर दुःख भोगते हैं। तिर्यंच बैल, कुत्ते आदि के नेत्रों में, कानों में, इन्द्रियों में, पोतों में घोर वेदना देने वाली गूंगा-चीचड़ा पैदा हो जाते हैं जो सभी मरम स्थानों में तीक्ष्ण मुखों से लहु को खींचते हैं, जिसकी घोर वेदना भोगते हैं।
कितनों ही को खाने को घास तथा पीने को पानी नहीं मिलता है तो भी घोर वेदना भोगते हुए ग्रीष्म ऋतु को पूरा करते हैं। श्रावण माह आ जाने पर घास बहुत पैदा हो जाती है वहाँ भी पाप के उदय से करोड़ों डांस मच्छर पैदा हो जाते है तो जहाँ चरने को जाते हैं वहीं पर डांस-मच्छरों के पैने डंक चुभने से उछलता फिरता है; घास की तरफ मुख नहीं कर सकता है; बैठे या सो जाय तो वहाँ पर जुओं की घोर वेदना भोगता है।
ऊँट, बैल, घोड़ा इत्यादि रास्ते में बोझा के दुःख से , वृद्ध अवस्था से , रोग से, जब थक जाते हैं, चलते नहीं बनता है, पैर टूट जाता है, मारते-मारते भी नहीं चल पाता है तब वही वन में, पानी में , पर्वत में ही छोड़कर मालिक चला जाता है। वहाँ निर्जन स्थान में , कीचड़ में अकेला पड़ा हुआ रह जाता है; कोई शरण नहीं। किससे कहे, कौन पानी पिलावे, घास कहाँ से आवे ? कीचड़ में गर्मी में, शीत में, वर्षा में पड़ा हुआ घोर भूखप्यास की वेदना भोगता है। असमर्थ जानकर दुष्ट पक्षी अपनी लोहे जैसी चोंचों द्वारा आँखे निकाल लेते हैं, मरम स्थानों में से अनेक जीव मांस काट-काटकर खाते हैं , नरक के समान घोर वेदना भोगता है, कई दिन तक तड़फड़ाता हुआ अति कठिनता से दुःख भोगता हुआ मरता है।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com