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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३८८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार गिरने से दबकर मर जाते हैं, विकलत्रय जीवों की ओर नहीं देखता, कोई-कोई तो इन्हें जीव मानते ही नहीं हैं, इनकी कोई दया नही करता हैं। घी में तेल में गिरकर, दीपक में-अग्नि में गिरकर मरकर घोर दुःख भोगते हैं; फिर उत्पन्न होते हैं फिर मरते हैं; इसी प्रकार असंख्यातकाल तक दुःख भोगते रहते हैं। जलचर तिर्यचों के दु:ख : कभी पंचेन्द्रिय जलचर तिर्यंच होता है, उनमें निर्बल को सबल खा जाते हैं। धीवरों के जाल में कांटों में फंसकर मर जाते हैं व जीवितों को भी भुलसकर खा जाते हैं। जंगली थलचर तिर्यचों के दुःख : वन के जीव सदाकाल डरे हुए, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, वर्षा, पवन, कर्दम आदि की घोर वेदना सहते हैं। प्रातःकाल में भूख बहुत लगती है, किन्तु भोजन कहाँ ? कभी आहार मिल जाता है तो पानी नहीं मिलता है, तीव्र तृषा वेदना भोगते हैं। शिकारी, पारधी जाकर मार लाते हैं। सबल हों तो वे निर्बलों को मार कर खा लेते हैं। पारधी जाकर बिलो में से खोजकर निकालकर मार डालते हैं। बलवान तिर्यंच निर्बलों को गुफाओं में, पर्वतों में, वृक्षों में, खड्डों में छिपे हुओं को बड़े छल से पकड़कर मार डालते हैं। सिंह, व्याघ्र , आदि भी सदा भयवान रहते हैं, आहार मिलने का नियम नहीं है, बहुत भूखे-प्यासे पड़े रहते हैं। कभी कुछ थोड़ा सा आहार मिल जाता है; कभी दो दिन में, कभी तीन दिन में मिले; कभी नहीं मिले तो घोर वेदना भोगते हुए मर जाते हैं। कषायी मनुष्य यंत्रों से, जालों के उपाय से पकड़कर मार-मार कर बेचते हैं; खा जाते हैं; जीवित के पैर काटकर बेच देते हैं, जीभ काटकर बेच देते हैं, इन्द्रियाँ काटकर बेच देते हैं, पूँछ काटकर बेच देते हैं; मरम स्थानों को काट देते हैं; छेद देते हैं, तल देते हैं, राँधते हैं, छीलते हैं उस तिर्यंचगति में कोई शरण नहीं है, कोई रक्षक नहीं है, कोई उपाय नहीं है। तिर्यचों में तो माता ही पुत्र का भक्षण कर लेती है, तब अन्य वहाँ कौन रक्षा करे ? नभचर तिर्यचों के दु:ख : नभचर पक्षियों को भी दुःखों का निरन्तर समागम है। निर्बल पक्षियों को सबल पक्षी पकड़कर मार डालते हैं। बाज, शिकरा, आकाश में ही मारकर खा जाते हैं। बागली, उल्लू इत्यादि रात्रि में विचरनेवाले दुष्ट पक्षी जाकर गर्दन मरोड़कर मार डालते हैं। बिल्ली, कुत्ते भी पक्षियों को बड़े छल से पकड़कर मारते हैं। पक्षी भयभीत हुए वृक्षों की छोटी डाली पकड़कर बैठते हैं, उन्हें सोना, बिछाना, बैठना नहीं मिलता; हवा की, वर्षा की , जल की, गर्मी की, ठण्ड की, घोर वेदना भोग-भोगकर मर जाते हैं। दुष्ट मनुष्य पकड़कर पंख उखाड़ देते हैं, चीर देते हैं, गर्म तेल में जीवित को ही तलकर बनाकर खा जाते हैं। जहाँ देखो वहाँ पर तिर्यचों को घोर दुःख है जो सब हिंसा का फल है। ___ पालतू थलचर तिर्यचों के दुःख : हाथी, घोड़ा, ऊँट, बैल, गधा, भैंसा-इनकी पराधीनता का दुःख कौन कह सकता है ? नाक फोड़कर सांकल-रस्सी की नाथ डालना, पराधीन बँधे रहना; Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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