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________________ ३८६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार पूर्व जन्म में मैंने अन्य प्राणियों का मांस काट-काटकर खाया है, इसीलिये यहाँ मेरे मांस को काट-काटकर मुझे खिलाते हैं; पूर्व में मैंने बहुत मद्य पान किया, अभक्ष्य खाया है, इसीलिये अनेक नारकी यहाँ पर पिघले हुये ताम्रलोहमय रस को संडासी से मेरा मुख खोलकर पिलाते हैं। जो पूर्व में परस्त्री लम्पटी थे उनको यहाँ पर वज्राग्निमय पुतलियाँ जबरदस्ती पकड़कर बहुत देर तक आलिंगन करती हैं। नरक में चक्षु की टिमकार मात्र समय को भी सुख नहीं है। यदि कभी कोई क्षण भर को भूल जाता है तो दुष्ट अधम असुरकुमार प्रेरणा करते हैं व नारकी परस्पर में भी प्रेरणा करके लड़ाते हैं । बहुत क्या कहें असंख्यात प्रकार के दुःख असंख्यात काल तक नरक में नारकी भोगते हैं। संसार में एक धर्म ही इस जीव का उद्धार करनेवाला है। वह धर्म कमाया नहीं है तब नरक में कौन रक्षा करेगा? कोई धन - कुटुम्ब आदि जीव के साथ नहीं जाता है, अपने भावों से कमाया पाप-पुण्य कर्म ही साथ जाता है । ये संसारी उपस्थ (काम) इंद्रिय के विषयों के लोलुपी होकर नरकादि में दुःख के पात्र बन जाते हैं। इस प्रकार अनेकबार नरक में जाकर घोर दुःख भोगता है। तिर्यंच गति के दुःख तिर्यंच गति में जाने के बाद भ्रमण का कुछ ठिकाना नहीं है, दुःख का पार नहीं है, दुःख ही दुःख है। पृस्थी काय में खोदना, जलाना, कूटना, रगड़ना, फाड़ना, छेदना आदि क्रियाओं से कौन रक्षा करता है ? जल काय में ओंटाया गया, जलाया गया, मला गया, मसला गया, पिया गया; विष में, क्षार में, कडुवे पदार्थों में मिलाया गया; गरम लोहा आदि धातुओं मे पत्थरों में बुझाया गया; घोर शब्द करता हुआ उबलता है - जलता है; पर्वतों से गिरकर शिलाओं के ऊपर घोर शब्द करता हुआ पछाड़ा खाता है; वस्त्रों में भर-भर कर शिलाओं पर पछाड़ा जाता है, डण्डों से कूटा जाता है, जलकाय के जीवों की कौन दया करे ? अग्नि के ऊपर पटक देते हैं, ग्रीष्मऋतु में गरम जमीन पर धूल पर सींचते हैं, कोई दया नहीं करता है; क्योंकि पूर्व जन्म में हमने दयाधर्म अंगीकार नहीं किया, अब अपनी दया कौन करेगा ? अग्नि काय में दबाना, बुझाना, कूटना, छेदना इत्यादि घोर दुःख भोगता है, कौन रक्षा करेगा ? पवन काय में निरन्तर पर्वतों की कठोर भीतों की चोट - पछाड़े सहता है; चमड़े में भरकर अग्नि में फेंका जाता है; धौंका जाता है; बीजना - पंखा - वस्त्र आदि से फटकारें खाता है, वृक्षों के पछाड़े आदि से पवनकाय में घोर दुःख भोगता है। वनस्पति काय में साधारण वनस्पति में तो एक के घात में अनन्तों का घात का दुःख तो केवलज्ञानी ही जानते हैं; परन्तु प्रत्येक वनस्पति का दुःख काटना, छेदना, छीलना, बनाना, राँधना, चबाना, तलना, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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