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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार
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इसलिये अब जिनेन्द्र के धर्म को प्राप्त होकर, सन्तोष धारण कर, अपने पुण्य के अनुकूल न्यायमार्ग से प्राप्त हुए धन को संतोषी होकर, तीव्र राग छोड़कर न्याय के विषय भोगो। दुःखित, भूख , दीन, अनाथों, के उपकार के लिये दान-सन्मान में धन लगाओ।
इस लक्ष्मी ने अनेक को ठगकर दुर्गति में पहुँचाया है। लक्ष्मी का साथ करके जगत के जीव अचेत हो रहे हैं। पुण्य के अस्त होते ही यह लक्ष्मी अस्त हो जायेगी। लक्ष्मी को केवल जोड़कर संग्रह करके मर जाना, यह लक्ष्मी पाने का फल नहीं है। इसका फल तो केवल उपकार करना, धर्म का मार्ग चलाना है। इस पापरुप लक्ष्मी को जिन्होंने ग्रहण नहीं किया है, या ग्रहण करके भी ममता छोड़कर क्षणमात्र में ही त्याग दिया है वे ही धन्य है, इस तरह बहुत क्या लिखें ?
यह धन, यौवन, जीवन, कुटुम्ब का साथ सब को जल के बुदबुदे के समान अनित्य जानकर आत्मा के हितरुप कार्य में प्रवर्तन करो। संसार में जितने संयोग है वे सब विनाशीक हैं - इस प्रकार अनित्य भावना भावो। जो पुत्र, पौत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि हैं वे किसी के साथ परलोक गये नहीं व जायेंगे नहीं, अपने द्वारा कमाया हआ पुण्य-पापादि कर्म ही साथ रहेगा। ये जाति, कुल, रुपादि व देश, नगरादि का समागम देह के साथ ही विनशैगा। अतः अनित्य भावना क्षणमात्र भी विस्मरण नहीं करो, जिससे पर से ममत्व छूटकर आत्म कार्य में प्रवृत्ति हो। इस प्रकार अनित्य भावना का वर्णन किया है। __ अशरण भावना (२) : अब अशरण भावना का स्वरुप इस प्रकार भावो। इस संसार में ऐसा कोई देव, दानव, इन्द्र, मनुष्य नहीं है जिसके ऊपर यमराज की फांसी नहीं पड़ी हो। काल के आ जाने पर कोई शरण देनेवाला नहीं है। आयु पूर्ण होने पर इन्द्र का भी पतन क्षण मात्र में हो जाता है। जिसके असंख्यात देव आज्ञाकारी सेवक, हजारों ऋद्धि सहित, स्वर्ग में असंख्यात काल का निवास, रोगादि-क्षुधा-तृषादि उपद्रव रहित शरीर, असंख्यात बल पराक्रम के धारी इन्द्र ही का जब पतन हो जाता है तो अन्य कोई भी शरण नहीं है। जैसे निर्जन वन में व्याघ्र के द्वारा पकड़े गये हिरण के बच्चे को बचाने में कोई भी समर्थ नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के द्वारा ग्रहण किये गये प्राणी की रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं है।
इस संसार में पूर्व काल में अनन्तानन्त पुरुष नाश को प्राप्त हो गये हैं, यहाँ कौन शरण है ? कोई ऐसी औषधि, मंत्र, यंत्र, तंत्र, क्रिया, देव, दानव आदि नहीं है जो एक क्षणमात्र के लिये भी काल से रक्षा कर ले। यदि कोई देव, देवी, वैद्य, मंत्र, तंत्रादि एक मनुष्य की ही मरण से रक्षा कर लेता तो मनुष्य अक्षय हो जाते। इसलिये मिथ्याबुद्धि को छोड़कर अशरण भावना भावो।
मूढ़ लोग इस प्रकार विचार करते हैं - मेरे हितैषी का इलाज ठीक नहीं हुआ, औषधि नहीं दी, किसी देवता की शरण नहीं ली, बचाने का उपाय किये बिना मर गया, इस प्रकार अपने स्वजन का शोच करते है। अपना शोच नहीं करते हैं कि- मैं भी यमराज की डाढ़ के बीच में बैठा हूँ। जो काल करोड़ों उपाय करने से इन्द्र के द्वारा भी नहीं रोका जा सका है उसको मनुष्यरुप कीड़ा
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