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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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दोष मुझे त्यागने योग्य हैं, ये गुण मुझे ग्रहण करने योग्य हैं; ये मेरे स्वरुप से भिन्न द्रव्य, लोक, क्षेत्र आदि जानने योग्य ही हैं- इस प्रकार मन से बारंबार चिन्तवन करना वह अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है। इससे अशुभ भावों का नाश होता है, शुभधर्म ध्यान प्रकट होता है।
आम्नाय स्वाध्याय : अतिशीघ्रता से पढ़ना, अतिविलंब से पढ़ना इत्यादि वचन के दोष टालकर धैर्य सहित एक-एक अक्षर की स्पष्टता सहित अर्थ के प्रकाश (भाव भासन) सहित पढ़ना, पाठ करना, मीठे स्वर से उच्चारण करना, तथा सिद्धान्त की परिपाटी से व आगम से विरोध रहित, लोक विरुद्धता रहित पढ़ना वह आम्नाय स्वाध्याय है।
धर्मोपदेश स्वाध्याय : लौकिक प्रयोजन लाभ, पूजा, अभिमान, मद आदि को छोड़कर उन्मार्ग को दूर करने के लिये, सन्मार्ग को दिखलाने के लिये, संशय मिटाने के लिये, अपूर्व पदार्थ प्रकट करने के लिये, धर्म का प्रकाश फैलाने के लिये, विषयानुराग तथा कषाय घटाने के लिये, अज्ञान मिटाने के लिये, भेद विज्ञान प्रकट करने के लिये, पाप क्रिया से भयभीत होने के लिये, भव्यों को धर्म के कथनों का उपदेश करना वह धर्मोपदेश नाम का स्वाध्याय है। जहाँ अनेक भव्य जीवों को धर्म का उपदेश दिया जाता है वहाँ मन-वचन-काय सभी धर्म के स्वरुप में लीन हो जाते हैं।
वक्ता का स्वरुप : उपदेशदाता का अभिप्राय ऐसा होता है कि किसी भी प्रकार से अनेकांत धर्म का यथावत् स्वरुप श्रोताओं के हृदय में प्रवेश कर जाय, किसी भी प्रकार से संसार- शरीर-भोगों में राग घट जाय, किसी भी प्रकार से भेद विज्ञान प्रकट हो जाय। जिस वक्ता का अभिप्राय ऐसा होता है वही सत्यार्थ धर्म का उपदेश करता है। जिसका
में रच जायेगा वही अन्य श्रोताओं को धर्म में रचा सकेगा। धर्मोपदेश देनेवाले में आत्मानुशासन में कहे इतने गुण होना चाहिये;
जिसकी बुद्धि त्रिकालविषयी हो अर्थात् जो पिछली अनेक परम्परायें परमागम से नहीं जानता है वह यथावत् वस्तु का स्वरुप नहीं कह सकता है, जिसे वर्तमान का वस्तु के स्वरुप का ज्ञान नहीं होगा वह विरुद्ध कथन कर देगा, जिसे भविष्य के परिपाक का ज्ञान नहीं होगा वह अयोग्य कह देगा। इसलिये जो वक्ता हो उसे अपनी बुद्धि के बल से, आगम के बल से, लौकिक रीति को प्रत्यक्ष देखकर त्रिकाल की रीति का जाननेवाला होना चाहिये ।१।।
चारों अनुयोगों के समस्त शास्त्रों के रहस्य का जाननेवाला होना चाहिये। जो चारों अनुयोगों के रहस्य को नहीं जानेगा तथा वक्तापना करेगा तो श्रोताओं को यथावत् नहीं समझा सकेगा, क्योंकि यदि प्रमाण का कथन आ गया, नयों का कथन आ गया, निक्षेपों का कथन आ गया, गुणस्थान-मार्गणास्थान का कथन आ गया, तीन लोकों का कथन आ गया, कर्म प्रकृतिओं का कथन आ गया, आचार का कथन आ गया तो जाने बिना यथावत् निःशंक-संशय रहित व्याख्यान नहीं कर सकेगा। इसलिये वक्ता को सभी अनुयोंगों के सभी शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता होना चाहिये।२।।
लोकरीति का जानकर (ज्ञाता) होना चाहिये। यदि लौकिक रचना (बनाव) में मूढ़ होगा तो वह लोक विरुद्ध व्याख्यान करेगा।३।
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