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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३०९ बड़ापना, धनाढ्यपना, ज्ञानीपना पाया है तो दान में ही उद्यम करो। छहकाय के जीवों को अभयदान देवो, अभक्ष्य का त्याग करो, बहुत आरंभ को घटाओ, देख-सोधकर उठानाधरना करो। यत्नाचार रहित निर्दयी होकर प्रवर्तन नहीं करो। किसी प्राणीमात्र को मनवचन-काय से दुःखी नहीं करो। दुखियों पर करुणा ही करो। ये ही गृहस्थ का अभयदान है। इससे संसार में जन्म, मरण, रोग, शोक, दारिद्र , वियोगादि संताप के पात्र नहीं बनोगे। ___ संसार के बढ़ानेवाले, हिंसा को पुष्ट करनेवाले, मिथ्याधर्म की प्ररूपणा करनेवाले, युद्धशास्त्र , श्रृंगारशास्त्र , मायाचार के शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, रस-रसायन, मन्त्र-जन्त्र, मारणवशीकरण शास्त्र महापाप के प्ररूपक हैं, इनको अति दूर से ही त्याग देना चाहिये। भगवान वीतराग सर्वज्ञ के कहे, दयाधर्म की प्ररूपणा करनेवाले, स्याद्वाद रूप अनेकान्त का प्रकाश करनेवाले, नय-प्रमाण द्वारा तत्त्वार्थों की प्ररूपणा करनेवाले शास्त्रों को अपने आत्मा को पढ़ने-पढ़ाने के द्वारा आत्मा के उद्धार के लिये अन्य को व अपने लिये दान करो। अपनी संतान को ज्ञान दान करो तथा अन्य धर्मबुद्धिवाले धर्म के रोचक इच्छुक हों, उनको शास्त्र दान करो। जो ज्ञान के इच्छक हैं वे ज्ञानदान के लिये पाठशाला की स्थापना करते हैं; क्योंकि धर्म का स्तम्भ ज्ञान ही है। जहाँ ज्ञानदान होगा वहाँ धर्म रहेगा। अतः ज्ञानदान में प्रवर्तन करो। ज्ञानदान के प्रभाव से निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होता है। रोग का नाश करनेवाली प्रासुक औषधि का दान करना चाहिये। औषधिदान बड़ा उपकारक है। रोगी को तुरंत तैयार औषधि मिल जाय उसका बड़ा आनन्द है। किसी निर्धन को जिसकी सेवा- टहल करनेवाला कोई नहीं हो, यदि उसे तैयार बनी हुई औषधि मिल जाय तो वह उसे निधियों के लाभ के समान मानता है। औषधि लेकर जो स्वस्थ हो जाता है वह समस्त व्रत-तप-संयम पालता है, ज्ञान का अभ्यास करता है। औषधिदान के द्वारा वात्सल्य, स्थितिकरण, निर्विचिकित्सा इत्यादि अनेक गुण पुष्ट होकर प्रकट होते हैं। औषधिदान के प्रभाव से रोगरहित देवों की वैक्रियिक देह प्राप्त होती है। आहारदान समस्त दानों में प्रधान है। प्राणी का जीवन, शक्ति, बल, बुद्धि ये सभी गुण आहार बिना नष्ट हो जाते हैं। जिसने आहारदान दिया उसने प्राणियों को जीवन, शक्ति, बद्धि सभी कछ दिया। आहारदान से ही मनि व श्रावक का समस्त धर्म चलता है। आहार बिना ये मार्ग भ्रष्ट हो जायेंगे। आहार ही सभी रोगों का नाश करनेवाला है। जो आहारदान देता है वह मिथ्यादष्टि भी भोगभमि में कल्पवृक्षों के द्वारा प्रदत्त दश प्रकार के भोगों को असंख्यात काल तक भोगता है, तथा क्षुधा-तृषादि की बाधा रहित होकर आँवले के बराबर तीन दिन के अंतर से भोजन करता है। सभी प्रकार के दुःख, क्लेश आदि से रहित होकर असंख्यात वर्ष तक सुख भोगकर देवलोक में जाकर उत्पन्न होता है। अतः धन को पाकर चार प्रकार के दान में प्रवर्तन करो। जो निर्धन हैं वे भी अपने भोजन में से जितना बने उतना दान करो। आपको आधा भोजन मिले तो उसमें से भी ग्रास दो ग्रास दुःखी, भूखे, दीन दरिद्रियों को दो। बल, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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