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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार तृष्णा को बढ़ानेवाला, रागद्वेष की तीव्रता करनेवाला, आरंभ की तीव्रता करनेवाला, हिंसादि पाँचों पापों का मूल जानकर इसे अंगीकार ही नहीं किया वे उत्तम पुरुष धन्य हैं। जिन्होंने इसे अंगीकार करके फिर इसे हलाहल विष समान जानकर जीर्ण तृण की तरह त्याग दिया उनकी भी अचिन्त्य महिमा है।
कितने ही जीवों का तीव्र राग भाव मंद नहीं हुआ इसलिये समस्त परिग्रह त्यागने को समर्थ नहीं है, वे सराग धर्म में रुचि रखते हैं, पापों से भयभीत हैं। वे इस धन को उत्तम पात्रों के उपकार के लिये दान में लगाते हैं। जो धर्म के सेवन करनेवाले धनवान हैं वे अन्न वस्त्रादि द्वारा निर्धन जनों का उपकार करने में धन लगाते हैं; धर्म के आयतन जिनमंदिर आदि बनवाने में, जिन सिद्धान्त (शास्त्र) लिखवा देने में, उपकरण में, पूजनादि प्रभावना में धन लगाते हैं; दुःखी-दरिद्री-रोगियों के उपकार में तन-मन से करुणावान होकर धन लगाते हैं, वे अपना धन व जीवन सफल करते हैं।
दान है वह धर्म का अंग है। अपनी शक्ति प्रमाण, भक्ति पूर्वक , गुणों के धारी उज्ज्वल पात्रों को जो दान देता है, वह जीव की महान सुख सामग्री को परलोक ले जानेवाला है, तथा निर्विघ्न स्वर्ग को व भोगभूमि को प्राप्त करानेवाला है, ऐसा जानो।
दान की महिमा तो अज्ञानी वाल-गोपाल भी करते हैं। वे कहते हैं कि - जिसने पूर्व भवों में दान दिया है, उसी ने अनेक प्रकार की सुख सामग्री पाई है, तथा जो अभी देगा सो आगे पायेगा। अतः जो सुख सम्पदा का इच्छुक हो उसे दान देने में ही अनुराग करना चाहिये। जो दान देने में उद्यमी नहीं हैं, केवल मरण पर्यन्त के लिये धन का संचय करने में ही उद्यमी हैं, वे यहाँ पर ही तीव्र आर्त परिणाम से मरकर सर्प आदि दुष्ट तिर्यंच की गति पाकर नरक-निगोद को प्राप्त करते हैं। धन क्या साथ जायेगा?
धन पाना तो दान से ही सफल है। दान रहित का धन घोर दुःखों की परिपाटी का कारण है। यहाँ पर ही कृपण की घोर निंदा होती है, लोग कृपण का नाम भी नहीं लेना चाहते हैं। कृपणा-सूम का नाम लेने को भी लोग अमंगल मानते हैं। दानी में कोई औगुण या दोष हो तो वह दोष भी दान से ढक जाता है, दानी के दोष दर भाग जाते हैं। जगत में निर्मल से ही फैलती है। दान देने से बैरी भी बैर छोड़ देते हैं, चरणों में झुक जाते हैं, अपना अहित करनेवाला भी मित्र हो जाता है। जगत में दान बड़ा है। सच्ची भक्ति से थोड़ा-सा भी दान देनेवाला भोगभूमि के भोगों को तीन पल्य पर्यन्त भोगकर देवलोक में चला जाता है।
देना ही जगत में ऊँचा है। विनय सहित व स्नेह के वचन सहित होकर दान देना चाहिये, दानी को ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिये कि हम इसका उपकार कर रहे हैं। दानी तो पात्र को अपना महान उपकार करनेवाला मानता है। लोभरूप अंधकूप में पड़े हुए को वहाँ से निकालने का उपकार पात्र बिना कौन करे ? पात्र बिना लोभियों का लोभ नहीं छूटता, पात्र बिना संसार से उद्धार करनेवाला दान कैसे बनता ? धर्मात्माजनों को तो पात्र के मिलने के समान तथा दान देने के समान अन्य कोई आनन्द नहीं है।
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