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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २९४] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार आचार्य पद्मनंदि ने तो और भी कहा है : मूर्खजनों द्वारा बाधा, पीड़ा, क्रोध के वचन, हास्य, अपमानादि होने पर भी जो उत्तमपुरुषों का मन विकार को प्राप्त नहीं होता है उसे उत्तम क्षमा कहते हैं। वह क्षमा मोक्षमार्ग में प्रवर्तते पुरुष की परम सहायक होती है। विवेकी ऐसा चितवन करते हैं - हम तो रागद्वेषादि मलरहित उज्ज्वल मन से बैठे हैं, अन्य लोग हमें खोटा कहो या भला कहो, हमें उससे क्या प्रयोजन है ? वीतराग धर्म के धारको को तो अपने आत्मा का शुद्धपना साधने योग्य है। यदि हमारे परिणाम दोष सहित हैं, तथा कोई हितैषी हमें भला कहता है, तो हम भले नहीं हो जायेंगे। यदि हमारे परिणाम दोष रहित हैं, तथा कोई बैर बुद्धि से हमें खोटा कहता है तो हम खोटे नहीं हो जायेंगे। फल तो जैसी हमारी चेष्टा, परिणाम, आचरण होगा वैसा प्राप्त होगा। जैसे किसी ने काँच को रत्न कह दिया तथा रत्न को काँच कह दिया, तो भी मूल्य तो रत्न का ही पायेगा, काँच के टुकड़े का बहुत धन कौन देगा? दुष्टजन का स्वभाव तो पर के दोष कहने का है; पर में बिलकुल भी दोष नहीं हो, तो भी पर के दोष कहे बिना उसे सुख नहीं मिलता है। अतः दुष्टजनों, मुझमें जो दोष हैं ही नहीं, वे लोगों के घर-घर में जाकर सभी मनुष्यों को कहकर सुखी होओ; जो धन चाहता हो वह मेरा सब कुछ ग्रहण कर सुखी हो जाओ; जो बैरी मेरे प्राण हरण करना चाहता है वह शीघ्र ही प्राण हरण कर ले; जो मेरा स्थान चाहता है वह स्थान छीन ले; मैं तो मध्यस्थ हूँ, रागद्वेष रहित हूँ। सभी संसार के प्राणी मेरे निमित्त से तो सुखरूप रहो। मेरे निमित्त से किसी प्राणी को कोई भी प्रकार का दुःख नहीं हो। मैं यह घोषणा करता हूँ – मेरा जीवन तो आयुकर्म के आधीन है, धन तथा स्थान का चला जाना बना रहना पाप-पुण्य के आधीन है; हमारा किसी अन्य जीव से बैर विरोध नहीं है, सभी के प्रति क्षमा है। __ हे आत्मन्! मिथ्यादृष्टि, दुष्टतासहित, हित-अहित के विवेकरहित, मूढ़ मनुष्यों द्वारा किये गये दुर्वचनादि उपद्रवों से अस्थिर चित्त होकर, बाधा मानकर क्यों दुःखी हो रहे हो ? क्या तुम तीन लोक के चूडामणि भगवान वीतराग को नहीं जानते हो? क्या तमने वीतराग धर्म की उपासना नहीं की है ? जगत के लोग तो मूर्ख हैं, क्या तुम ऐसा नहीं जानते हो ? मोही, मिथ्यादृष्टि, मूढों का ज्ञान तो विपरीत ही होता है; वे सब तो कर्मों के वश हैं, इसलिये उनमें क्षमा ग्रहण करना ही योग्य है। क्षमा ही इसलोक में परमशरण है, माता के समान रक्षा करनेवाली है। बहुत क्या कहें ? जिन धर्म का मूल क्षमा है, इसी के आधार से सकल गुण हैं, कर्मों की निर्जरा का कारण है, हजारों उपद्रव दूर करनेवाली है। इसलिये धन व जीवन चले जाने पर भी क्षमा को छोड़ना योग्य नहीं है। कोई दुष्टता से आपको प्राणरहित करता हो उस समय में भी कटु वचन नहीं कहो। मारने वाले से भी अंतरंग बैर छोड्कर ऐसा कहो – आप जो हमारे रक्षक ही हैं, परन्तु हमारी मृत्यु ही आ गई है, उसमें आप क्या कर सकते हैं ? हमारे पाप कर्म का उदय आ गया है, तो भी हमारा Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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