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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २४८] वस्तु जो आत्मा, उसका स्वभाव केवलज्ञान-केवलदर्शन है, उस स्वभाव में लीन होना वह प्रशंसा करने योग्य संवेग है। धर्म में अनुरागरूप परिणाम होना संवेग है। धर्म के फल को अत्यन्त मिष्ट जानना वह संवेग है। धर्म का फल : ये तीर्थंकरपना, चक्रवर्ती होना, नारायण, प्रतिनारायण ,बलभद्र आदि उत्पन्न होना वह धर्म ही का फल है। बाधारहित केवली होना, स्वर्गादि में महान ऋद्धिधारी देव होना, इंद्र होना, अनुत्तर आदि विमानों में अहमिन्द्र होना वह सब पूर्व जन्म में आराधन किये धर्म का ही फल है। भोगभूमि आदि में उत्पन्न होना, राज्य-संपदा पाना, अखण्ड ऐश्वर्य पाना, अनेक देशों में आज्ञा चलना, प्रचुर धन-संपदा पाना, रूप की अधिकता पाना, बल की अधिकता चतुरता, महान पंडितपना, सर्व लोक में मान्यता, निर्मल यश की विख्यातता, बुद्धि की उज्ज्वलता, आज्ञाकारी धर्मात्मा कुटुम्ब का संयोग मिलना, सत्पुरुषों की संगति मिलना, रोग रहित होना, दीर्घ आयु, इंद्रियों की उज्ज्वलता, न्याय मार्ग में प्रवर्तना, वचन की मिष्ठता इत्यादि उत्तम सामग्री का पाना है, वह कभी धर्म से प्रेम किया होगा, धर्मात्माओं की सेवा की होगी, धर्म तथा धर्मात्माओं की प्रशंसा की होगी उसका फल है। कल्पवृक्ष , चिंतामणि रत्न सभी को धर्मात्मा के दरवाजे पर खड़े समझो। धर्म के फल की महिमा कोई कोटि जिहाओं द्वारा भी कहने में समर्थ नहीं हो सकता है। ऐसे धर्म के फल को जो तीनलोक में उत्कष्ट जानता है उसके संवेग भावना होती है। धर्म सहित साधर्मी जीवों को देखकर आनंद उत्पन्न होना, धर्म की कथनी में आनंदमय होना तथा भोगों से विरक्त हो जाना वह संवेग नाम की पाँचवीं भावना है। इसको आत्मा का हितरूप समझकर निरंतर इसकी भावना भावो तथा भावना के आनंद सहित होकर इसकी प्राप्ति के लिये इसका महान अर्घ उतारण करो। इस प्रकार संवेगनाम की पाँचवीं भावना का वर्णन किया ।५। शक्ति प्रमाण त्याग भावना अब शक्तिप्रमाणत्याग भावना का वर्णन करते हैं। यह त्याग नाम की भावना प्रशंसा योग्य मनुष्य जन्म का मण्डन है। अपने हृदय में त्याग भाव लाने के लिये अनेक उत्सवरूप वादित्रों को बजाकर इसका महान अर्घ उतारण करो। परिग्रह त्याग : बाह्य-अंतरंग दोनों प्रकार के परिग्रह से ममता छोड़ने से त्याग धर्म होता है। अंतरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है, वह इस प्रकार जानना। जाने बिना ग्रहण त्याग वृथा है। मिथ्यात्व, स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद रूप परिणाम, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, राग,द्वेष ,क्रोध ,मान,माया,लोभ रूप परिणाम-ऐसा चौदह प्रकार का अंतरंग परिग्रह जानना। शरीर आदि परद्रव्यों में आत्मबुद्धि करना वह मिथ्यात्व परिग्रह है। जो भी वस्तु है वह अपने द्रव्य, अपने गुण, अपनी पर्यायरूप है, वही वस्तु का अपना स्वरूप है। जैसे – स्वर्ण नाम Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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