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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [२४७ मित्र का स्वरूप : इस कलिकाल के मित्र भी विषयों में ही उलझानेवाले हैं, सभी व्यसनों में फंसानेवाले सहायक हैं। जिनको धनवान देखते हैं उनसे अनेक लोग मित्रता करते हैं, निर्धन से कोई बात भी नहीं करता है। अधिक कहाँ तक कहें। मित्रता तो व्यसनों में डुबोने के लिये ही है। इसलिये हे ज्ञानीजनों! यदि संसार में डूब जाने का भय लगता है तो अन्य सभी से मित्रता छोड़कर परमधर्म में अनुराग करो। यह संसार तो निरन्तर जन्म मरण रूप ही है। प्रत्येक जीव जन्म के दिन से ही मृत्यु की ओर निरन्तर प्रयाण करता है। अनंतानंत काल जन्म-मरण करते हो गया है। अतः पंच परावर्तनरूप संसार से विरागता भावो। इंद्रियों के विषयों का स्वरूप : ये जो पाँच इंद्रियों के विषय हैं वे आत्मा के स्वरूप को भुलाने वाले हैं, तृष्णा को बढ़ानेवाले हैं, असंतोष को बढ़ानेवाले हैं। विषयों के समान पीड़ा तीन लोक में अन्य नहीं है। विषय तो नरकादि कुगति के कारण हैं, धर्म से पराङ्मुख करनेवाले हैं, कषायों को बढ़ानेवाले हैं, ज्ञान को विपरीत करनेवाले हैं, विष के समान मारनेवाले हैं; विष और अग्नि के समान दाह उपजानेवाले हैं। इसलिये विषयों में राग छोड़ने में ही परम कल्याण है। जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें विषयों को दूर से ही छोड़ देना चाहिये। __शरीर का स्वरूप : शरीर रोगों का स्थान है, महामलिन दुर्गन्धित सप्त धातु मय है, मल-मूत्रादि से भरा है, वात-पित्त-कफमय है, वायु के निमित्त से हलन-चलन आदि करता है, सदा ही भूख-प्यास का कष्ट लगाये रहता है, सब प्रकार की अशुचिता का पुंज है, दिन-प्रतिदिन जीर्ण होता चला जाता है, करोड़ों उपायों द्वारा रक्षा करते रहने पर भी मरण को प्राप्त हो जाता है। ऐसे शरीर से विरक्त होना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार लत्र, संसार, शरीर, भोगों का दुःखकारी स्वरूप जानकर विरागभाव को प्राप्त होना ही संवेग है। संवेग भावना का निरन्तर चिंतन करना ही श्रेष्ठ है। अतः मेरे हृदय में निरन्तर संवेग भावना रहे, ऐसा चिंतवन करते हुये संसार-शरीर-भोगों से विरक्ति होने पर ही परम धर्म में अनुराग होता है।। धर्म का स्वरूप : धर्म शब्द का अर्थ ऐसा जानना - जो वस्तु का स्वभाव है वह धर्म है, उत्तम क्षमादि दशलक्षणरूप धर्म है, रत्नत्रयरूप धर्म है, तथा जीवों की दयारूप धर्म है। पर्याय बुद्धिवाले शिष्यों को समझाने के लिये धर्म शब्द का चार प्रकार से वर्णन किया है, वस्तु जो आत्मा उसका स्वभाव ही दशलक्षणरूप है। क्षमादि दश भेदरूप आत्मा का ही स्वभाव है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र भी आत्मा से भिन्न नहीं है तथा दया भी आत्मा का ही स्वभाव है। जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे गये आत्मा के स्वभावरूप दशलक्षण धर्म में अनुराग होना संवेग है। कपट रहित रत्नत्रयधर्म में अनुराग होना संवेग है। मुनीश्वरों के तथा श्रावकों के धर्म में अनुराग होना संवेग है। जीवों की रक्षा करने रूप जीव दया के परिणाम होना उसे भगवान ने संवेग कहा है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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