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________________ १९४] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार लवण समुद्र के एक किनारे पर ऐसे चौबीस अंतरद्वीप हैं, दोनों किनारों के अड़तालीस, तथा अड़तालीस ही कालोदधि समुद्र के दोनों किनारों के। इस प्रकार छियानवै अन्तरद्वीपों में कुभोग भूमियाँ हैं, उनमें कुपात्र दान से मनुष्य युगल उत्पन्न होते हैं। उनमें एक टांगवाले मनुष्य गुफाओं में रहते हैं और अत्यंत मीठी मीट्टी खाते हैं। अन्य दूसरे सभी मनुष्य वृक्षों के नीचे रहते हैं। तथा कल्प वृक्षों के दिये अनेक प्रकार के फल खाते हैं। अब कुभोगभूमि के मनुष्यों में उत्पन्न होने के कारण रूप परिणामों को त्रिलोकसारजी में कही तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं : जिणलिंगे मायावी जोइसमंतोव जीविधणकंखा। अइगउरं सण्ण जुदा करेंति जे परविवाहंपि ।।९२२ ।। दंसण विराहिया जे दोसं णालोचयन्ति दु सणगा। पंचग्गितवा मिच्छा मोणं परिहरिय भजन्ति ।।९२३ ।। दुभाव असुइसूदग पुप्फ वईजाई संकरादीहिं। कयदाणावि कुपत्ते जीवा कुणरेसु जायन्ते ।।९२४ ।। अर्थ :- जो जिनेन्द्र का निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके अनेक परीषह सहते हुए भी मायाचार के परिणाम करते हैं; ज्योतिष विद्या, मन्त्र विद्या, वैद्य विद्या द्वारा लोगों को प्रसन्न करके भोजन प्राप्त कर जीते हैं; लोगों को ज्योतिष वैद्यक, मन्त्रशास्त्रों आदि द्वारा अपना भक्त बनाते हैं; तपश्चरण करके धन की बांछा करते हैं; ऋद्धि के गर्व से युक्त हैं; हम जगत में पूज्य हैं तथा अपना यश जगत में विख्यात होने के गर्व से युक्त हैं; अपने साता के उदयजनित सुख के गर्व सहित हैं; आहार की बांछा करते हैं; अशुभ के उदय के भय सहित हैं; मैथुन की इच्छा करते हैं; परिग्रह तथा शिष्यों की बांछा करते हैं, दूसरों के विवाह कराने में प्रवृत्ति करते हैं - वे सब जिनलिंगधारी कुतप के प्रभाव से कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। ___ जो जिनलिंग धारण करके भी सम्यग्दर्शन की विराधना करते हैं; अपने दोषों की गुरु से आलोचना नहीं करते हैं; अन्य के दोष कहते हैं, वे कुमनुष्यों में उत्पन होते है। जो मिथ्यादृष्टि पंचाग्नि तप के द्वारा कायक्लेश करते हैं; मौन छोड़कर भोजन करते हैं; जो दुष्टभावों द्वारा दान देते हैं; जो अपवित्र होकर दान देते हैं; जो सूतक सहित होकर दान देते हैं; जो रजस्वला स्त्री से संसर्ग करके दान देते हैं; जो जातिसंकर आदि होकर दान देते हैं; जो कुपात्रों को दान देते हैं, वे कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। __वे कुमानुष भी सभी कष्ट रहित एक पल्य तक स्त्री-पुरुष युगल होकर साथ ही पैदा होते हैं, साथ ही मरते हैं। कुदान के व कुतप के प्रभाव से आयुपर्यंत सुख में मग्न रहकर काल पूरा करके मंद कषाय के प्रभाव से भवनत्रिक में उत्पन्न हो जाते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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