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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
: प्रीति
रहती है, चलायमान चित्तवाले की नष्ट हो जाती है। मैं महापाण्डित-प्रवीण हूँ, मैने बहुत चतुराई से इसे बढ़ाया है; जो मूर्ख-अज्ञानी भूलें करके चलते हैं उनकी लक्ष्मी नष्ट हो जाती है। मैं शूरवीर हूँ, अन्य की ही लक्ष्मी की भी रक्षा करता हूँ, मेरी लक्ष्मी कैसे नष्ट होगी ? कायर की लक्ष्मी नष्ट हो जाती है। मैं पूज्य हूँ, सभी की लक्ष्मी पूज्य के पास रहना चाहिये, किसी नीच की नष्ट हो जाती है। मैं धर्मात्मा हूँ, नित्य ही दान, पूजा शीलव्रत आदि करता हूँ, मेरी लक्ष्मी कैसे नष्ट होगी? कोई पापी की लक्ष्मी नष्ट होती है। मैं सुन्दर रूपवान हूँ, हमारी सुरत पर ही लक्ष्मी का निवास दिखता है, किसी कुरूप की नष्ट होती है। मैं सुजन हूँ, सबका प्रिय हूँ, मेरी लक्ष्मी कैसे नष्ट होगी ? जो दुष्ट हो, सबका अप्रिय हो उसकी लक्ष्मी नष्ट होती है। मैं पराक्रमी हूँ, उद्यमी हूँ, प्रतिदिन नई कमाई करता हूँ, मेरी लक्ष्मी कैसे नष्ट होगी ? आलसीउद्यमहीन की लक्ष्मी नष्ट हो जाती है, ऐसा समझना मिथ्या भ्रम है।
धन के सम्बन्ध में ज्ञानी की मान्यता : यह लक्ष्मी तो पहिले भवों में किये पुण्य की दासी है। पुण्य परमाणुओं का उदय समाप्त होते ही यह नष्ट हो जाती है। जैसे पचास हाथ लम्बे महल में दीपक बुझते ही अंधकार हो जाता है, उसे कौन रोक सकता है ? जैसे जीव के निकल जाने पर शरीर की समस्त इंद्रियाँ चेष्टा रहित हो जाती हैं, तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार पूण्य अस्त हो जाने पर समस्त लक्ष्मी, कां प्रतीति एक क्षण मात्र में नष्ट हो जाती है।
प्रथम तो इस लक्ष्मी को न्याय के भोगों में लगाओ, तथा परिणामों में दयाभाव लाकर दुःखितों, भूखों को दान करो। यह लक्ष्मी तो जैसे जल में लहर क्षण भर में बिला जाती है, उसी प्रकार कोई दो दिन का इस लक्ष्मी का संयोग है, पश्चात् नियम से इसका वियोग होगा। जो पुरुष इस लक्ष्मी को निरन्तर संचय ही करते हैं, न तो स्वयं भोगते हैं, न पात्र को दान ही देते हैं वे अपने आत्मा को ठगते है, अचानक ही मरकर अन्तमुहूर्त में जाकर नरक के नारकी के रूप में जन्म ले लेंगे। उनका मनुष्य जन्म निष्फल ही हुआ जानना।
जो लोग लक्ष्मी को एकत्र करके बहुत दूर गाड़ देते हैं, नष्ट होने के डर से जमीन में बहुत गहराई में गाड़ देते हैं, वे लोग उस लक्ष्मी को पथ्थर के समान कर देते है। जैसे जमीन में अनेक पथ्थर रखे है, उसी प्रकार धन भी रखा रहेगा। यदि स्वयं ने दान-भोग के लिये काम में नहीं अनेक पत्थर रखे हैं, उसी प्रकार धन भी रखा रहेगा। यदि स्वयं ने दान-भोग के लिये काम में नहीं लिया, तो दरिद्री जैसा ही रहा। जो लोग लक्ष्मी का निरन्तर संचय ही करते रहते हैं, न तो दान करते हैं, न भोग भोगने में खर्च करते हैं, उनकी अपनी लक्ष्मी भी पर की लक्ष्मी के समान है; जैसे पड़ोसी की लक्ष्मी व नगर के अन्य निवासियों की लक्ष्मी देखने में तो आती है, किन्तु भोगने में नहीं आती, दान देन में नहीं आती है। ___ जो पुरुष लक्ष्मी में अति आसक्त तथा प्रीतिवन्त हो जाता है वह अपने खाने में, पीने में, औषधि आदि में, वस्त्र पहिनने में, अपने रहने मे मकान में, अन्य अनेक भोग उपभोग के साधनों के अभाव
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