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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
१८६]
धर्मात्मा जनों को रहने के लिये, धर्मसाधन करने के लिये धर्मशाला, वस्तिका आदि अपनी शक्ति के अनुसार खरीद देना, अपना घर का स्थान हो तो वहाँ बनवा देना; रहने के स्थान के बिना धर्म सेवन आदि में परिणाम स्थिर नहीं रहते हैं। ___ कोई जिनधर्मी परदेशी दुःखी आ जाय तो महीना-दो महीना को भोजन आदि की सहायता कर देना। किसी परदेशी के पास अपने घर तक वापिस जाने का व्यय नहीं रह गया हो, मार्ग में वह लुट गया हो, चोर लूट ले गये हों, आपको जैनी जानकर आपके पास आया हो, तो उसे अपने घर पहुँचने के लिये जैसे बने वैसे दान देकर पहुँचा देना। ___कोई परदेशी रोगी होकर आया हो उसे ठहरने का स्थान बतलाना, औषधि देकर रोग रहित करना, बारम्बार धर्मोपदेश देकर समता देना. बारम्बार पँछना. वैयावत्य करना। निर्धन मनुष्यों से नहीं बन सकती जो ऐसी औषधि का निरन्तर दान करना। परिणाम विचलित हो गये हों, रोग से, वियोग से, दुःख से, दारिद्र से धैर्य छूट गया हो तो उन्हें बारम्बार धर्मोपदेश देकर धीरज धारण कराना।
अपने आत्मा को निरन्तर ज्ञानदान देना, आप स्वयं ज्ञानवान हो तो नित्य अनेक जीवों को धर्मोपदेश देना। कोई शास्त्र के अर्थ जाननेवाले विद्वान की प्राप्ति हो जाय तो उसे कल्पवृक्ष के लाभ के समान बड़े हर्ष सहित आजीविका आदि की स्थिरता कर देना, बहुत विनय आदर से रखकर आप धर्म ग्रहण करना। __ धर्म की वृद्धि के लिये ज्ञानियों का सन्मान आदि करके धर्म के उपदेश, तत्त्वों के स्वरूप की चर्चा, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि की चर्चा की प्रवृत्ति कराकर धर्म की प्रभावना, सम्यग्ज्ञान की चर्चा की प्रवृत्ति कराना। जहाँ धर्म की प्रवृत्ति मंद हो गई हो उन ग्रामों में शास्त्र लिखवाकर भाषा वचनिका योग्य शास्त्र भेजना। ज्ञानदान तो सभी मंदकषायी भद्र परिमाणी पुरुषों को करना ही चाहिये।
परोपकार की प्रेरणा - सम्पत्ति पाकर दान-सन्मान से, प्रियवचनों से अपने मित्रों, कुटुम्बियों, बैरी को भी प्रसन्न करना। सम्पदा का समागम तथा जीवन क्षण भंगुर है। इस धन से. शरीर से. वाणी से अन्य जीवों का उपकार करना ही श्रेष्ठ है। प्रिय वचन बोलने का बड़ा दान है। बैरियों से अपना बैर छोड़ना, प्रिय वचनों द्वारा अपना अपराध क्षमा कराना भी बड़ा दान है। अपना धन, धरती देकर के भी संतुष्ट कर देना, बैर धो डालना, अभिमान त्याग देना, अपना कुटुम्बी यदि निर्धन हो तो उसे अपनी शक्ति अनुसार दान सम्मान देना, अपनी बहिनबेटी निर्धन हो तो बारम्बार भोजन पान-वस्त्र-आभरण आदि द्वारा दान सम्मान करना।
जो दयावान होते हैं, वे अन्य दुःखित दो दान सम्मान देकर उसका दुःख दूर करते हैं। जिनकी उजर-प्रार्थना आप तक पहुँच जाये ऐसे अपने ही अंग समान भुआ, बहिन, बेटी, जमाई इनको दुःखी कैसे देख सकता है ? किसी के द्वारा अपना उजाड़-बिगाड़ हो गया हो तो उसे भी कटुक वचन नहीं कहना। उसको इस तरह समझाना - भाई, तुम अपने परिणामों में कुछ संताप मत करो। गृहचारे में हानि-वृद्धि, लाभ-अलाभ तो कर्म उदय के अनुकूल होते हैं ? सभी सामग्री विनाशीक
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