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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१६९ दातार के सात गुण : उत्तमपात्रादि को दान देने वाले दातार में ये सात गुण होना चाहिये। दान देकर इस लोक संबंधी विख्यातता, लोक मान्यता, राजमान्यता, धनदान्यादि की वृद्धि , यशकीर्ति आदि इस लोक संबंधी फल नहीं चाहना । १। दातार को क्रोध नहीं आना चाहिये। लेने वाले तो बहुत हैं, मैं किस-किस को दूं, ऐसा क्रोध किये बिना मुनि श्रावक आदि को दान देना । २। ___कपट सहित दान नहीं देना चाहिये। कहना और, दिखाना और, करना और, लोगों को भक्ति दिखाने में संक्लेशित होना, ऐसे कपट से रहित होकर दान देना । ३।। अन्य दातार से ईर्ष्या होकर दान देना चाहिये। इसने क्या दिया है। मैं ऐसा दान करूँगा जिससे उसका यश घट जायगा, इस प्रकार के ईर्ष्याभाव से दान नहीं करान चाहिये । ४।। दान देकर विषाद नहीं करना चाहिये। मैं क्या करूँ ? सबसे बड़ा कहलाता हूँ, यदि मैं दान नहीं दूंगा तो मेरी उच्चता घट जायगी, ऐसा विषादी होकर दान नहीं देना चाहिये । ५। पात्रों का साथ मिल जाय या निर्विघ्न दान हो जाय तो अपूर्व निधि प्राप्ति के समान आनन्द मानना वह मुदित भाव पूर्वक दान देना है । ६। दान देने का मद या अहंकार नहीं करना वह निरहंकारता नाम का गुण है । ७। इस प्रकार पात्रदान देने वाले दाता को इन सात गुणों सहित होना चाहिये। नवधा भक्ति : पात्र को दान देने वालों को मुनि तथा श्रावक का जैसा पद हो उसके अनुसार, नवधा भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये। नव प्रकार की भक्ति के नाम – संग्रह १, उच्चस्थान २, पादोदक ३, अर्चन ४, प्रणाम ५, मनशुद्धि ६, वचनशुद्धि ७, काय शुद्धि ८, भोजन शुद्धि ।९। ___मुनिराज को तथा क्षुल्लक को - 'हे स्वामी ; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ,' इसका अर्थ है – कृपा कर खड़े रहें, रुक जावें – ऐसा तीनबार कहना चाहिये। जिनका अति पूज्यपना देखकर जिसके चित्त में उनके प्रति अति अनुराग होगा, वही तीन बार आदरपूर्वक कहेगा। अन्य श्रावक आदि योग्य पात्र भी घर आवे तो – आईये, पधारिये, विराजिये इत्यादि आदर के वचन कहना, वह संग्रह या प्रतिग्रह है।१। बुलाकर उच्चस्थान पर आसन देना २, प्रासुक प्रामाणिक जल से पैर धोना, धुलाना ३, जैसा समय जैसा पात्र हो उसके योग्य स्तवन पूज्यपना के वचन कहना ४, मुनि-श्रावक की योग्यता अनुसार नमस्कार, आदि करना ५, मन की शुद्धिता करना तथा बोलना ६, वचन की शुद्धता करना, कहना, अयोग्य वचन नहीं बोलना ७, काय की शुद्धि करना व कहना, यत्नाचार सहित चलना, उठना, इत्यादि ८, भोजन शुद्धि करना व बोलता, पात्र योग्य शुद्ध भोजन देना ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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