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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार भवों तक के लिये नरक-तिर्यंच गतियों के दुःखों को अंगीकार कर लिया है, इसका मुझे बहुत पश्चाताप है। अब ऐसे घोर पापकर्म के नाश करने का उपाय भगवान पंच परमेष्ठी की शरण के सिवाय दूसरा कोई नहीं है। भविष्य में भी परिग्रह से विरक्ति करानेवाला भगवान पंच परमेष्ठी बिना अन्य कोई नहीं है। इसलिये मूर्छा का नाश करने के लिये, परम संतोष उत्पन्न करने के लिये, परिग्रह का त्याग करने के लिये पंच नमस्कार मंत्र के ध्यानपूर्वक कायोत्सर्ग करता हूँ। अब ‘सामायिक में स्थित गृहस्थ मुनि के समान है' – कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ।।१०२।। अर्थ :- सामायिक के काल में गृहस्थ समस्त आरम्भ और परिग्रह से रहित हैं, इसलिये सामायिक करता हुआ गृहस्थ वस्त्र के उपसर्ग सहित मुनि के समान यतिपने के भाव को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ :- सामायिक के समय में गृहस्थ के समस्त आरंभ और समस्त परिग्रह नहीं हैं, परन्तु गृहस्थ है इसलिये वस्त्र पहिने है। वस्त्र के सिवाय अन्य सब प्रकार से मुनि तुल्य ही है। मुनि के नग्नपना होता है, किन्तु यह वस्त्र धारण किये है - इतना ही अन्तर हैं, इसलिये इसे मुनि नहीं कहा जाता है।
अब सामायिक के समय में उपसर्ग या परिषह आ जाय तो यह मुनीश्वर के समान ही धीरता धारणकर सह लेता है; कायर नहीं होता है, ऐसा कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः ।
सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुर्वीरन्नचलयोगाः ।।१०३।। अर्थ :- सामायिक में स्थित गृहस्थ मौन धारण करता है, मन-वचन-काय को चलायमान नहीं करता हैं। शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषह तथा चेतन-अचेतन कृत उपसर्ग को सहता है।
भावार्थ :- सामायिक करने के समय में यदि शीत का, उष्णता का, वर्षा का , पवन का, डांस, मच्छरों का, दुष्टों के दुर्वचनों का, रोग की पीड़ा का परिषद आ जाये, दुष्ट वैरी द्वारा किया हुआ, तथा सिंह, व्याघ्र, सर्पादि तथा अग्नि, जलादि जनित उपसर्ग आ जाये तो बड़ा धैर्य धारण करके मन, वचन, काय को साम्यभाव से चलायमान नहीं करता हुआ मौन सहित सहन करता है। अब सामायिक में संसार तथा मोक्ष के स्वरूप का चिंतवन करनेवाला श्लोक कहते हैं -
अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् ।
मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ।।१०४।। अर्थ :- सामायिक करने वाला गृहस्थ संसार का स्वरूप इस प्रकार विचारता है :
संसार का स्वरूप : यह चतुर्गति में परिभ्रमणरूप संसार अशरण है। इसमें अनंतानन्त जन्म-मरण करते हुये अनंतकाल व्यतीत हो गया। सभी पर्यायों में क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग, मारन, ताड़न,
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