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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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अल्प है तथा परलोक में अपने किये हुये कर्मों का फल मैं ही अकेला भोगूँगा । ऐसा विचार करते-करते हुए भी मेरे परिणामों में अन्य जीवों से बैर तथा विषयों से राग नहीं घट रहा है सो यह भी प्रबल मोह की ही महिमा है । इसी कारण मैं जिन्होंने मोहकर्म का नाश कर उस पर विजय प्राप्त की है, ऐसे पंच परमेष्ठियों का स्मरण करता हूँ।
मोहकर्म को जीतने वाले जिनेन्द्र के प्रभाव से मेरे मोहकर्म से उत्पन्न हुए रागभाव, द्वेषभाव, कामादि विकारीभाव, क्रोधभाव, अभिमानभाव, मायाचारभाव, लोभभाव नष्ट हो जायें । जैसी वीतरागता जिनेन्द्र भगवान ने पाई है वैसी ही मुझे भी प्रकट हो। इस अभिप्राय से मैं शरीर से ममत्व छोड़कर पंच परमेष्ठी के ध्यान सहित कार्योत्सर्ग करता हूँ।
हिंसा त्याग : अज्ञान भाव से जो पूर्वकाल में मैने पृथ्वीकाय का खोदना, कुचरना, कूटना इत्यादि किया हो; डूबकर, बिलोकर, छिड़ककर स्नान आदि कर जलकाय के जीवों की विराधना की हो; दाबना, बुझाना, कसेरना, कूटना इत्यादि द्वारा अग्निकाय के जीवों की विराधना की हो; पंखा आदि से पवनकाय के जीवों की विराधना की हो; तथा जड़, कंद, मूल, छाल, कोंपल, पत्ता, फूल, फल, डाली, डाल, सींक, तृण, घास, वेल, गुल्म, वृक्षादि को तोड़ना, छेदना, काटना, उखाड़ना, चबाना, रांधना, मसलना, बांटना इत्यादि द्वारा वनस्पति काय की विराधना की हो तो उनसे उत्पन्न हुए पाप कर्मों का नाश परमेष्ठी के जाप के प्रभाव से हो जाये। अब मेरे परिणाम छह काय के जीवों के घात से पराङ्मुख हों, मुझे संयमभाव की प्राप्ति हो ।
प्रमाद त्याग : मेरे चलने में, आने में, जाने में, उठने में, बैठने में, पसरने में, संकोचने में, भोजन में, पानी में, आरम्भ करने में, जाने में, उठाने में, रखने में, तथा चक्की, चूल्हा, ओखली, बुहारी, पानी में, तथा सेवा, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्पकर्म, लिखना आदि जीविका में, तथा गाड़ी-घोड़ा इत्यादि वाहनों में प्रवर्तन द्वारा जो यत्नाचार रहित मेरी प्रवृत्ति हुई, उससे दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पाँच इंद्रिय जीवों की विराधना हुई होगी, वह मिथ्या हो । मैंने बहुत बुरा किया है। ये आरम्भ आदि भले नहीं है, संसार में डुबोनेवाले हैं, नरक देनेवाले हैं। इन आरम्भ विषय—कषायों द्वारा ही यह जीव एक इंद्रिय आदि तिर्यंचों में अनंतानंतकाल तक क्षुधा, तृषा, मारन, ताड़न, लादन, बंधन, जलाना, छेदन, फाड़न, चीरन, चाबन इत्यादि के घोर दुःख सहता भोगता है। उस हिंसा से उत्पन्न हुए कर्मों के नाश के लिये तथा आगे हिंसारूप परिणामों के अभाव के लिये मैं पंच परमेष्ठी - नमस्कार - मंत्र की शरण ग्रहण करता हूँ ।
असत्य त्याग : अज्ञान भाव से व प्रमाद से मैंने कोई असत्य वचन कहा हो, गाली दी हो, भण्ड वचन कहे हों, मर्म छेदनेवाले कर्कश कठोर वचन कहे हों, किसी को चोरी का कलंक लगाया हो, किसी को कुशील का कलंक लगाया हो, तथा धर्मात्मा, ज्ञानी, तपस्वी, शीलवन्तों को दोष लगाया हो, धर्मात्माओं की निंदा की हो, सच्चे देव - गुरु-धर्म की निंदा की हो, हिंसा की प्रवृत्ति का उपदेश दिया हो, मिथ्या धर्म की प्ररूपणा की हो, स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा, देशकथा इत्यादि घोर पापों में मेरे वचन की प्रवृत्ति हुई हो, उस सबका अब पश्चाताप करता हूँ।
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