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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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हुआ, पंच परमेष्ठी के गुणों को स्मरण करता हुआ, जिनेन्द्र के प्रतिबिम्ब का विचार करता हुआ सामायिक में बैठता है। अपने आत्मा के ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव को राग-द्वेष से भिन्न अनुभव करता है। चार मंगल पद, चार उत्तम पद, चार शरण पदों का चितवन करता है। बारह भावना, सोलह कारण भावनाओं का विचार करता है। २४ तीर्थंकरों की स्तुति में, किसी एक तीर्थंकर की स्तुति में, पंच परमगुरु की स्तुति में, उसके अर्थ को एकाग्रचित होकर सामायिक में विचार करते हुए बैठता है।
प्रतिक्रमण : प्रतिक्रमण करने के लिये दिन में किये गये सभी दोषों को दिन के अंत में विचार करता है, रात्रि में किये गये सभी दोषों को प्रातःकाल विचार करता है कि यह मनुष्य जन्म और उसमें सर्वज्ञ वीतराग भगवान द्वारा उपदेशित जैनधर्म जो अनन्त काल में बहत मुश्किल से प्राप्त हुआ है, इस जन्म की एक घड़ी भी धर्म के बिना व्यतीत नहीं हो।
इस प्रकार चितवन करता है - मैंने आज के दिन में तथा रात्रि में जिनदर्शन-पूजनस्तवन में कितना समय व्यतीत किया ? स्वाध्याय, संगति, तत्त्व चर्चा, पंचपरमेष्ठी की जापध्यान में, पात्र दान में कितना समय व्यतीत किया ? बहुत आरंभ में, इंद्रियों के विषयों में, व्यवहार की विकथा में, प्रमाद में, निद्रा में, कामसेवन में, भोजन-पान में, आजीविका के आरंभ आदि में कितना समय व्यतीत किया ? मेरी मन, वचन, काय की प्रवृत्ति व रागादि भाव , संसार के कार्यों में अधिक हुये या परमार्थ में अधिक हुये ? ___इस प्रकार दिन में किये कार्यों का दिन के अंत में तथा रात्रि में किये कार्यों का प्रातः काल
। चाहिये। जो पाँच रुपये की पँजी लेकर व्यापार करता है वह नित्य रोजाना अपना ठगा जाना, कमाना, नुकसान, लाभ की संभाल करता है, तो पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्राप्त इस जन्म में उत्तम मनुष्य पर्याय , वीतराग धर्म, सत्संगति, इंद्रियों की परिपूर्णता आदि धन की पूंजी से व्यापार करता हुआ ज्ञानी क्या अपनी आत्मा की हानि-वृद्धि की संभाल नहीं करे ? यदि नुकसान-नफा की संभाल नहीं करेगा तो परलोक से लाये धर्म-धन को नष्ट करके घोर तिर्यंचगति में व नरक-निगोद में जाकर दुखी होगा। इसलिये धर्मरूपी धन को कमाकर वृद्धि करने का इच्छुक एक दिन में कम से कम दो बार तो अवश्य ही संभाल करता ही है।
कषाय त्याग : कषायो के वश होकर तथा विषयों के वश होकर अज्ञान से जो अपने मन, वचन, काय की दुष्ट प्रवृत्ति हुई हो उसको बारम्बार विचार कर निंदा गर्दा करता है – हाय ! मैने दुष्ट चितवन लिया, काय से दुष्ट क्रिया की , वचन से बहुत निंद्य प्रवृत्ति की, इससे महाअशुभ कर्मबन्ध किये, धर्म को दूषित किया, अपयश प्रगट किया।
अब इस निंद्य कर्म का विचार करके मेरे परिणाम पश्चाताप की अग्नि में जल रहे हैं। अहो! मोहकर्म बड़ा बलवान है। मैं अपने दुष्ट परिणामों को, पाप करनेवाले दुर्गति को ले जानेवाले, अपने निंद्य परिणामों को अच्छी तरह से जानता हूँ कि ये मेरा घात ही करनेवाले हैं; ये परिणाम मेरे प्रयोजनरहित हैं ऐसा जानता हूँ मैं यह अच्छी तरह बारम्बार अपने परिणामों में निश्चय कर रहा हूँ कि जीवन
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