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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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की वस्तुओं में, जमीन में, छत में, लाखों-करोड़ो जीव फैलकर विचरने लग जाते हैं। अतः लोभ के वश, प्रमाद के वश, अभिमान के वश होकर बहुत संग्रह मत करो। मूंग, मोठ, उड़द तथा और भी अन्य फलादि जिन के ऊपर सफेद फूली प्रकट दिखाई देने लगे उसमें त्रस जीव हो गये हैं, ऐसा जानकर नहीं खाना चाहिये।
बरसात के समय के चार महीनों में कितनी ही वस्तुओं का तो संग्रह ही नहीं रखो। नगर शहर में निवास करने का फायदा तो यही है कि जिस समय चाहो उसी समय दोचार-पाँच-दस दिन के खर्च के लिये जितना आवश्यक हो उतना दस-पाँच जगह अच्छा निर्दोष सामान देखकर खरीद सकते हैं। वर्षा ऋतु में गुड़ में, शक्कर में, खांड में बहुत चीटी, लट, सुलसुली हो जाती हैं; सोंठ, अजवाइन, इलाइची, काजू, डोंडा, सुपारी बहुत घुन जाते हैं; दाख, पिस्ता, चिरोंजी, छुआरा, खोपरा, इत्यादि में परिमाणरहित लट, कीड़ा, इल्ली बहुत हजारों-लाखों उत्पन्न हो जाते हैं।
पुरवाई हवा के संयोग से ही गुड़ आदि में परिमाण रहित जीव उत्पन्न हो जाते हैं। मर्यादारहित लड्डू पेड़ा, घेवर, बरफी इत्यादि में लट आदि बहुत जीव उत्पन्न प्रकट होते दिखाई देते हैं। हल्दी, धनिया, जीरा, मिर्च, अमचुर, काथोड़ी में वर्षा ऋतु में बहुत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। अतः इन पदार्थों का थोड़ा संग्रह करो, नित्य ही देख-शोधकर उनका उपभोग करो। यहाँ यह यत्नाचार ही धर्म है। आटा शीतऋतु में सात दिन का, ग्रीष्म ऋतु में पाँच दिन का, वर्षा ऋतु में तीन दिन से अधिक का नहीं खाना चाहिये। आटा का संग्रह नहीं करना चाहिये। आटे में बहुत लटें पैदा हो जाती है। दाल, चावल इत्यादि जब भी पकाओ तो दो-तीन बार शोधबीन कर पकाओ।।
प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में ऐसा लिखा है “ सर्वाशनं च न ग्राह्यं दिनद्वययुतं नरैः”। अर्थ-समस्त भोजन दो दिन से अधिक पुराना नहीं खाना चाहिये। अतः एक रात बीत जाने के बाद यदि दूसरी रात बीत जाये तो वह भोजन मनुष्यों के खाने के योग्य नहीं रहता है। इसमें जल के संसर्ग सहित सभी पकवान वगैरह भी आ गये। पुआ, मालपुआ, हलुआ आदि तथा बड़ा, कचोड़ी रात के बासी हो जाने पर चलित रस हो जाते हैं – स्वाद बिगड़ जाता है क्योंकि इनमें पानी का प्रयोग बहुत रहता है। रोटी, खिचड़ी, तरकारी, साग, लोंजी रात की बासी तो कभी खाना ही नहीं चाहिये। यदि स्वाद बिगड़ गया हो तो उसी दिन भी नहीं खाना चाहिये।
रात्रि में बनाया सभी भोजन भक्षण नहीं करना चाहिये। दही पहले दिन का जमाया दूसरे दिन तक खा लेना चाहिये, अधिक दिन का नहीं। दो फाड़वाली दाल के अन्न को दही, छांछ के साथ नहीं खाना चाहिये। यदि इन्हें मिलाकर खाओगे तो इसमें द्विदल का दोष लगेगा। जीभ के नीचे कण्ठ में पहुँचते ही जिसमें सम्मूर्छन जीव उत्पन्न होने लगते हैं उसे द्विदल कहते हैं। दूध को दुह लेने के बाद छानकर दो घड़ी के पहिले ही गर्म कर लेना चाहिये; बाद में सम्मूर्च्छन त्रस जीव उत्पन्न होने लगते हैं। घी भी छांछ में से निकालने के बाद शीघ्र ही गर्म करके छानकर खाने योग्य होता है। बिना तपाये, बिना छाने नहीं खाना चाहिये।
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