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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
भांग को पीने वाला भांग छानकर नहीं पीता है जबकि उसमें असंख्यात त्रसजीव उत्पन्न होते हैं जिन्हें रोका नहीं जा सकता है। अतः धर्म का इच्छुक भांग का अवश्य त्याग ही करता है क्योंकि भांग अंतरंग बिगाड करता है तथा बाह्य में भी बहत त्रस जीवों की विराधना होती है।
मदिरा त्याग : मदिरा में तो असीम-अपरिमाण त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, अत्यंत दुर्गंधित है। उत्तम कुल के पुरुष यदि मदिरा की धारा को दूर से ही भोजन करते हुये देख लें तो उसी समय भोजन का त्याग कर देते हैं तथा मदिरा से छू जाने पर वस्त्र सहित स्नान करते हैं। मदिरा से उन्मत्त होने वाला माता को, पुत्री को, स्त्री रूप से आचरण
रता है - देखता है. तथा अपनी स्त्री को माता-पत्री रूप आचरण करता है. देखने लगता है। भय, ग्लानि, क्रोध, काम, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक – ये सभी दोष जो हिंसा के कारण होने से हिंसा ही हैं, वे सभी मद्य पीने वाले के होते हैं। अतः धर्म का अर्थी मद्यपान का दूर ही से त्याग कर देता है।
मांस त्याग : दो इंद्रिय आदि जीवों का घात करने से मांस उत्पन्न होता है, जिसका आकार देखने से ही बहुत घृणा उत्पन्न होती है। मांस का स्पर्श, दुर्गंध, नाम ही परिणामों में महाग्लानि उत्पन्न कर देता है। जो धर्म रहित, नरकादि में जाने वाले हैं, महा निर्दय परिणामी होते हैं वे ही मांस भक्षण करते हैं।
स्वयमेव मरे हुए बैल, भैंसा, बकरा, हिरण आदि के मांस में अनन्त तो बादर निगोदिया जीव और अंसख्यात त्रस जीवों का घात होता है। कच्चे मांस में, अग्नि से पकाये हुये मांस में, अग्नि पर रखे हुए बर्तन में पकते हुए मांस में भी अनन्त जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। उसी की जाति का जीव हर समय उत्पन्न होता रहता है। इसलिये कच्चा मांस पका हुआ मांस, पकता हुआ मांस, सूखे मांस को जो खाते है वे तथा मांस की डली को जो छूते भी हैं वे मनुष्य निरंतर एकत्र हुए बहुत से जीवों का घात करते हैं।
चांडालों की जूठन, कसाइयों की, म्लच्छों की , कुत्तों की जूठन तो मांस ही होती है। मांस-भक्षियों के दया, आचार आदि नहीं होता है; जाति, कुल, धर्म, दया, क्षमा आदि समस्त गुणों से भ्रष्ट-रहित होते हैं। दुर्गतिगामी, महापापी, महानिर्दयी लोगों ने मांसभक्षण को उन्ही के बनाये शास्त्रों में धर्म कहा है। मांस से देवता तथा पितरों को तृप्त होना कहते हैं, देवताओं को मांसभक्षी कहते हैं। श्राद्धों में ब्राह्मणों को मांस पिंड का भक्षण कराकर देवों को-पितरों को तृप्त होना कहते है। यह सब मिथ्यादर्शन का प्रभाव है।
मधु त्याग : मधु जैसी कोई अधम वस्तु नहीं है। मक्खियों का वमन, भील, चांडालों का जूठन, अनंतजीवों की उत्पत्ति का स्थान मधु है। बहुत अधिक मक्खियों को मारकर भील चांडालादि मधु निकालकर लाते हैं। जो अपने आप मरते हैं ऐसे भी असंख्यात त्रसजीवों की उत्पत्ति मधु में होती है। मधु को पवित्र मानना, पंचामृतों में कहना, शुद्ध कहना – इस जैसा विपरीत (असत्य) और दूसरा कोई नहीं है। शहद का एक कण मात्र भी जो दवा के रूप में लेते हैं, रोग दूर करने
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