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भावार्थ :- जीव मारने के संकल्प से त्रस जीवों को मारने का त्याग १; अन्य को तथा स्वयं को क्लेश उत्पन्न करनेवाले एवं सच्चे श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का घात करनेवाले वचन का त्याग २: बिना दिया. धरा. गडा. पडा. भला अन्य के धन का ग्रहण करने का त्याग ३: अप कुल के योग्य विवाही स्त्री के सिवाय अन्य समस्त स्त्रियों में राग का त्याग ४; न्याय से कमाये परिग्रह में परिमाण करके अधिक परिग्रह का त्याग ५; ये पांच तो अणुव्रत तथा जिससे अपने परिणाम मोही होकर अपने हित-अहित की सावधानी-विवेक नहीं रह जाता है ऐसे मद्यपान का त्याग ६; दो इंद्रिय आदि जीवों के शरीर से उत्पन्न मांस का त्याग ७; तथा मधुमक्खियों द्वारा छत्ते में एकत्र किया मधु भक्षण का त्याग ८; इन अष्ट का त्याग सो अष्ट मूलगुण हैं।
यदि गृहस्थ के पांच पाप और तीन मकार के त्याग में दृढ़ता आ जाये तो समस्त गुणरूप महल की नींव लग गई। अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण का कारण मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य थे। उनका जब अभाव हो जाये तब यह जीव अनेक गुणग्रहण का पात्र होता है। इसलिये ये आठ त्याग हैं वे ही मूलगुण है।
अन्य ग्रन्थों में पांच उदम्बर फल व तीन मकार का त्याग – ये आठ मूलगुण कहे हैं। वहाँ ऊमर १, कठूमर २, गूलर ३, पीपल का गोल फल ४, तथा बड़ का फल बड़बाला ५, ये पांच उदम्बर फल कहे हैं। इनमें बहुत अधिक त्रस जीव प्रकट दिखाई देते हैं; अतः इन फलों का खाना मांस भक्षण के समान है। अन्य और भी कितने ही फल, फूल, पत्ता, रेशे, रोम हैं जिनको सुखा लेने से कुछ समय में त्रस जीव जो उनमें रहते हैं, वे मर जाते हैं; उन सूखे सुखाये फल इत्यादि को खाने में भी रागभाव की अधिकता से महाहिंसा ही होती है। जिसे ऐसे परिणाम होते हैं कि मैं इन्हे सुखाकर खाऊँगा, उसे अभक्ष्य में तीव्र अनुराग होने से बहुत अधिक पाप का ही बंध होता है।
__ मद्य त्याग :- मदिरा मन को मोहित करती है, अचेत कर देती है। मन के मोहित हो जाने पर धर्म को भूल जाता है, धर्म भूल जाने पर पुरुष निःशंक होकर हिंसापूर्वक आचरण करने लगता है।
यहां ऐसा विशेष जानना :- जो वस्तु मन को उन्मत्त करे, स्वरूप की सावधानी भुला दे, विषयों में आसक्ति बढ़ावे, रसना इन्द्रिय तथा उपस्थ (काम) इन्द्रिय के विषय में अतिराग बढ़ावे वह मद्य है। इसलिये भांग पीना, अमलपोस्त (अफीम), छोतरा (छिलका) आदि नशाकारक वस्तुएं, तथा इनके संयोग से बने पाक, माजूम – इन सभी मदकारी वस्तुओं के भक्षण करने से धर्मबुद्धि का नाश हो जाता है, अभक्ष्यभक्षण में मस्त हो जाता है, बुद्धि की उज्ज्वलता नष्ट हो जाती है, परमार्थ का विचार नष्ट हो जाता है।
भांग त्याग : इसलिये जो जिनेन्द्र की आज्ञा को मानना चाहता है वह अवश्य नशाकारक वस्तु को खाने-पीने का त्याग कर देता है। भाग में त्रस जीव बहुत उत्पन्न होते हैं। भांग पीनेवाले की देखने-सोधने की प्रवृत्ति नहीं होती है। अन्य पदार्थ में जीव पड़ जावें तो उसे खाता नहीं है, किन्तु
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