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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार इस प्रकार अनेक गूढ़-गहन भेदों वाला यह जिनेन्द्र का मार्ग है, इसमें एकांती मिथ्यादृष्टियों का पार होना अत्यंत कष्ट सहकर भी संभव नहीं है। अनेकान्त के प्रभाव से नय समूह को जानने वाले गुरु ही शरण हैं। यह जिनेन्द्र भगवान का नयचक्र अत्यन्त पैनी धारवाला होने से एकांत दुष्टआग्रह वाले मिथ्यादृष्टियों की मिथ्यायुक्तियों के हजारों खण्ड करनेवाला है।
इसलिये हे ज्ञानीजनों ! भगवान वीतराग की आज्ञा से सर्व प्रथम ही हिंसा होने योग्य जो जीवों के स्थान, इंद्रिय, काय, जीवों के कुल आदि हैं उन्हें जानो; पश्चात् हिंसा करने वाले भाव को जानो; उसके पश्चात् हिंसा का जो स्वरुप कहा है उसे जानो; और फिर हिंसा के फल को जानो। ___इस प्रकार हिंस्य, हिंसक , हिंसा, हिंसा का फल - इन चार को अच्छी तरह प्रयत्नपूर्वक जानने के बाद देश, काल, सहायक, अपने परिणाम, और निर्वाह होना जानकर, अपनी शक्ति को बिना छिपाये गृहस्थ अवस्था में भी अपने पद के अनुसार हिंसा का त्याग ही करे। त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का तो त्याग ही करो और समस्त आरंभ में दयावान होकर यत्नाचार पूर्वक प्रवर्तन करो; पाँच स्थावरों के आरम्भ में क्रमशः घटाते हुए दयावान होकर प्रवतों। इस प्रकार अहिंसाणुव्रत का स्वरुप कहा। अब अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार बतलानेवाला श्लोक कहते हैं।
छेदनबंधनपीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः ।
आहारवारणापि च स्थूलबधाद्व्युपरतेः पञ्च ।।४।। अर्थ :- ये स्थूल हिंसा का त्याग नामक अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार हैं,जो गृहस्थ को त्यागने योग्य हैं।
छेदन अर्थात् अन्य मनुष्य-तिर्यचों के कान, नाक, ओष्ठ आदि अंगों को छेदना वह छेदन नाम का अतिचार है। १ । मनुष्य को बंधन आदि द्वारा बांधना, बंदीगृह में डाल देना; तिर्यंचों को मजबूत बंधन से बांधना, पक्षियों को पिंजरे में बंद करना इत्यादि बंधन नाम का अतिचार है। २ । मनुष्य–तिर्यंचों को लात, घमूका , लाठी, चाबुक , आदि के प्रहार से कष्ट देना वह पीड़न नाम का अतिचार हैं। ३ ।।
मनुष्य-तिर्यंचों तथा उनकी गाड़ी पर बहुत बोझ लादना वह अतिभारारोपण नाम का अतिचार है। ४ ।
मनुष्य-तिर्यंचों को खाने-पीने से रोकना वह अन्नपान निरोध नाम का अतिचार है। ५। ये पाँच अतिचार स्थूल हिंसा के त्यागी को त्यागने योग्य ही हैं। अब सत्याणुव्रत का स्वरुप कहनेवाला श्लोक कहते हैं -
स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥५५।।
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