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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ७१ एवंविधाः पुद्गलद्रव्यस्य प्रदेशाः संख्याता असंख्याता अनन्ताश्च। लोकाकाशधर्माधर्मैकजीवानामसंख्यातप्रदेशा भवन्ति। इतरस्यालोकाकाशस्यानन्ताः प्रदेशा भवन्ति। कालस्यैकप्रदेशो भवति, अतः कारणादस्य कायत्वं न भवति अपि तु द्रव्यत्वमस्त्येवेत्ति। ( उपेन्द्रवज्रा) पदार्थरत्नाभरणं मुमुक्षोः कृतं मया कंठविभूषणार्थम्। अनेन धीमान् व्यवहारमार्ग बुवा पुनर्बोधति शुद्धमार्गम्।। ५२ ।। पोग्गलदव्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि। चेदणभावो जीवो चेदणगुणवज्जिया सेसा।। ३७ ।। पुद्गलद्रव्यको ऐसे प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनंत होते हैं। लोकाकाशको, धर्मको, अधर्मको तथा एक जीवको असंख्यात प्रदेश हैं। शेष जो अलोकाकाश उसे अनंत प्रदेश है। कालको एक प्रदेश है, उस कारणसे उसे कायत्व नहीं है परंतु द्रव्यत्व है ही। [अब इन दो गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] पदार्थोंरूपी (-छह द्रव्योंरूपी) रत्नोंका आभरण मैंने मुमुक्षुके कंठकी शोभाके हेतु बनाया है ; उसके द्वारा धीमान पुरुष व्यवहारमार्गको जानकर, शुद्धमार्गको भी जानता है। ५२। है मूर्तपुद्गलद्रव्य शेष पाँचों ही अमूर्तिक द्रव्य है है जीव चेतन, शेष पाँचों चेतना-गुण-शून्य है।। ३७।। * -आकाशके प्रदेशकी भाँति, किसी भी द्रव्यका एक परमाणु द्वारा व्यपित होने योग्य जो अंश उसे उस द्रव्यका प्रदेश कहा जाता है। द्रव्यसे पुद्गल एकप्रदेशी होनेपर भी पर्यायसे स्कंधपनेकी अपेक्षासे पुद्गलको दो प्रदेशोंसे लेकर अनंत प्रदेश भी संभव होते है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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