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जीव अधिकार
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।। १३ ।।
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः। केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणितः।। १३ ।।
दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत्। यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथ: दर्शनोपयोगश्च तथा। स्वभावदर्शनोपयोगो विभावदर्शनोपयोगश्च । स्वभावोऽपि द्विविधः, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति। तत्र कारणदृष्टि: सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य
गाथा १३ अन्वयार्थ:--[ तथा] उसीप्रकार [दर्शनोपयोगः] दर्शनोपयोग [स्वस्वभावेतरविकल्पतः] स्वभाव और विभावके भेदसे [ द्विविधः] दो प्रकारका है। [ केवलम् ] जो केवल , [ इन्द्रियरहितम् ] इन्द्रियरहित और [ असहायं ] असहाय है, [तत् ] वह [ स्वभावः इति भणित: ] स्वभावदर्शनोपयोग कहा है।
टीका:- यह, दर्शनोपयोगके स्वरूपका कथन है।
जिसप्रकार ज्ञानोपयोग बहुविध भेदोंवाला है, उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी वैसा है। ( वहाँ प्रथम, उसके दो भेद हैं :) स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग। स्वभावदर्शनोपयोग भी दो प्रकारका है : कारणस्वभावदर्शनोपयोग और कार्यस्वभावदर्शनोपयोग।
वहाँ 'कारणदृष्टि तो, सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव
१- दृष्टि = दर्शन, [ दर्शन अथवा दृष्टिके दो अर्थ हैं : (१) सामान्य प्रतिभास , और (२)
श्रद्धा। जहाँ जो अर्थ घटित होता हो वहाँ वह अर्थ समझना। दोनों अर्थ गर्भित हों
वहाँ दोनों समझना।] २- विभाव = विशेष भाव; अपेक्षित भाव। [ औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और
क्षायिक यह चार भाव अपेक्षित भाव होनेसे उन्हें विभावस्वभाव परभाव कहा है। एक सहजपरमपारिणामिक भावको ही सदा-पावनरूप निज स्वभाव कहा है। चार
दर्शनपयोग स्वभाव और विभाव दो विधि जानिये। इन्द्रिय-रहित , असहाय , केवल , दृग्स्वभाविक मानिये।।१३।।
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