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जीव अधिकार
अत्तागमतचाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं। ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो।।५।।
आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम्। व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः।। ५ ।।
व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । आप्तः शंकारहितः। शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः । आगम: तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षः चतुरवचनसंदर्भः। तत्त्वानि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वपरमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवाजीवाजीवास्त्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति । तेषां सम्यश्रद्धानं व्यवहारसम्यक्त्वमिति।
[आर्या] भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न समस्ति। तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि।। १२ ।।
गाथा ५ अन्वयार्थ:---[ आप्तागमतत्त्वानां ] आप्त, आगम और तत्त्वोंकी [ श्रद्धानात् ] श्रद्धासे [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व [ भवति ] होता है ; [ व्यपगताशेषदोषः] जिसके अशेष [ समस्त ] दोष दूर हुए हैं ऐसा जो [ सकलगुणात्मा] सकलगुणमय पुरुष [आप्तः भवेत् ] वह आप्त
टीका:--- यह, व्यवहारसम्यक्त्वके स्वरूपका कथन है।
आप्त अर्थात् शंकारहित। शंका अर्थात् सकल मोहरागद्वेषादिक ( दोष )। आगम अर्थात् आप्तके मुखारविन्दसे निकली हुई, समस्त वस्तुविस्तारका स्थापन करनेमें समर्थ ऐसी चतुर वचनरचना। तत्त्व बहिःतत्त्व और अन्तःतत्त्वरूप परमात्मतत्त्व ऐसे (दो) भेदोवाले है अथवा जीव, अजीव, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदोंके कारण सात प्रकारके हैं। उनका (--आप्तका, आगमका और तत्त्वका) सम्यक् श्रद्धान सो व्यवहारसम्यक्त्व है।
[ अब, पाँचवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है : ]
[ श्लोकार्थ:-] भवके भयका भेदनकरनेवाले इन भगवानके प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है ? तो तू भवसमुद्रके मध्यमें रहनेवाले मगरके मुखमें है। १२ ।
रे! आप्त--आगम--तत्त्वका श्रद्धान वह सम्यक्त्व है। निःशेषदोषविहीन जो गुणसकलमय सो आप्त है ।।५।।
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