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नियमसार
३४९
अत्रापि निरुपाधिस्वरूपलक्षणपरमात्मतत्त्वमुक्तम्।
अखिलदुरघवीरवैरिवरूथिनीसंभ्रमागोचरसहजज्ञानदुर्गनिलयत्वादव्याबाधम् , सर्वात्म-प्रदेशभरितचिदानन्दमयत्वादतीन्द्रियम् , त्रिषु तत्त्वेषु विशिष्टत्वादनौपम्यम्, संसृतिपुरंधिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिर्मुक्तम्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोहरागद्वेषाभावात्पुनरागमनविरहितम्, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्, निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावादचलम्, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः
टीका:-यहाँ भी, निरुपाधि स्वरूप जिसका लक्षण है ऐसा परमात्मतत्त्व कहा है।
(परमात्मतत्त्व ऐसा है:- ) समस्त दुष्ट 'अघरूपी वीर शत्रुओंकी सेनाके उपद्रवको अगोचर ऐसे सहजज्ञानरूपी गढ़में आवास होनेके कारण अव्याबाध (निर्विघ्न) है; सर्व आत्मप्रदेशमें भरे हुए चिदानंदमयपनेके कारण अतीन्द्रिय है; तीन तत्त्वोंमें विशिष्ट होनेके कारण (बहिरात्मतत्त्व, अंतरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनोंमें विशिष्ट--मुख्य प्रकार का--उत्तम होनेके कारण) अनुपम है; संसाररूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न होनेवाले सुखदुःखका अभाव होनेके कारण पुण्यपाप रहित है; पुनरागमनके हेतुभूत प्रशस्त-अप्रशस्त मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण पुनरागमन रहित है; 'नित्यमरणके तथा उस भव संबंधी मरणके कारणभूत कलेवरके (शरीरके) संबंधका अभाव होनेके कारण नित्य है; निज गुणों
और पर्यायोंसे च्युत न होनेके कारण अचल है; परद्रव्यके अवलंबनका अभाव होनेके कारण निरालंब है।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने ( श्री समयसारकी आत्मख्याति नामकी टीकामें १३८ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
१। अध्यात्मशास्त्रोमें अनेक स्थानों पर पाप तथा पुण्य दोनोंको ‘अघ' अथवा 'पाप' कहा
जाता है। २। पुनरागमन = ( चार गतियोंमें किसी गतिमें) फिरसे आना; जन्म धारण करना सो। ३। नित्य मरण = प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्मके निषेकोंका क्षय।
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