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नियमसार
३४७
जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं ।। १७७ ।।
जातिजरामरणरहितं परमं कर्माष्टवर्जितं शुद्धम्। ज्ञानादिचतुःस्वभावं अक्षयमविनाशमच्छेद्यम्।। १७७ ।।
कारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत्।
निसर्गतः संसृतेरभावाज्जातिजरामरणरहितम्, परमपारिणामिकभावेन परमस्वभावत्वात्परमम्, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वात् कर्माष्टकवर्जितम्, द्रव्यभावकर्मरहितत्वाच्छुद्धम्, सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजचिच्छक्तिमयत्वाज्ज्ञानादिचतु:स्वभावम्, सादिसनिधन मूर्तेन्द्रियात्मकविजातीयविभावव्यंजनपर्यायवीतत्वादक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्त
पाँच प्रकारके संसारसे मुक्त होनेके लिये वंदन करता हूँ। २९५ ।
गाथा १७७ अन्वयार्थ:- (परमात्मतत्त्व) [ जातिजरामरणरहितम् ] जन्म-जरा-मरण रहित, [ परमम् ] परम, [कर्माष्टवर्जितम् ] आठ कर्म रहित , [ शुद्धम् ] शुद्ध , [ज्ञानादिचतुःस्वभावम् ] ज्ञानादिक चार स्वभाववाला, [अक्षयम् ] अक्षय, [अविनाशम् ] अविनाशी और [ अच्छेद्यम् ] अच्छेद्य है।
टीका:-( जिसका संपूर्ण आश्रय करनेसे सिद्ध हुआ जाता है ऐसे ) कारणपरमतत्त्वके स्वरूपका यह कथन है।
(कारणपरमतत्त्व ऐसा है:-) निसर्गसे ( स्वभावसे ) संसारका अभाव होनेके कारण जन्म-जरा-मरण रहित है; परम-पारिणामिकभाव द्वारा परमस्वभाववाला होनेके कारण परम है; तीनों काल निरुपाधि-स्वरूपवाला होनेके कारण आठ कर्म रहित है; द्रव्यकर्म और भावकर्म रहित होनेके कारण शुद्ध है; सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजचित्शक्तिमय होनेके कारण ज्ञानादिक चार स्वभाववाला है; सादि-सांत, मूर्त इंद्रियात्मक विजातीय-विभावव्यंजनपर्याय रहित होनेके कारण अक्षय है; प्रशस्त-अप्रशस्त
बिन कर्म ,परम, विशुद्ध , जन्म, जरा, मरणसे हीन है। ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद्य, अछीन है ।।१७७।।
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