________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
३४५
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं। पच्छा पावइ सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण।। १७६ ।।
आयुषः क्षयेण पुनः निर्नाशो भवति शेषप्रकृतीनाम्। पश्चात्प्राप्नोति शीघ्रं लोकाग्रं समयमात्रेण ।। १७६ ।।
शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम्।
स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षट्कापक्रमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्य ध्यानध्येयध्यातृतत्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति।
गाथा १७६ अन्वयार्थ:-[ पुनः] फिर (केवलीको) [आयुषः क्षयेण] आयुके क्षयसे [ शेषप्रकृतीनाम् ] शेष प्रकृतियोंका [ निर्नाशः ] संपूर्ण नाश [ भवति ] होता है; [ पश्चात् ] फिर वे [ शीघ्रं ] शीघ्र [ समयमात्रेण ] समयमात्रमें [ लोकाग्रं ] लोकाग्रमें [ प्राप्नोति ] पहुँचते हैं।
टीका:-यह, शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति होनेके उपायका कथन है।
स्वभावगतिक्रियारूप परिणत, छह अपक्रमसे रहित, सिद्धक्षेत्रसंमुख भगवानको परम शुकलध्यान द्वारा-कि जो (शुक्लध्यान) ध्यान-ध्येय-ध्याता संबंधी, उसकी फलप्राप्ति संबंधी तथा उसके प्रयोजन संबंधी विकल्पोंसे रहित है और निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप है उसके द्वारा-आयुकर्मका क्षय होनेपर, वेदनीय, नाम और गोत्र नामकी शेष प्रकृतियोंका संपूर्ण नाश होता है ( अर्थात् भगवानको शुक्लध्यान द्वारा आयुकर्मका क्षय होने पर शेष तीन कर्मोका भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्र की और स्वभावगतिक्रिया होती है)।
* संसारी जीव अन्य भवमें जाते समय छह दिशाओंमें गमनकरता है; उसे “छह अपक्रम"
कहा जाता है।
हो आयु क्षयसे शेष सब ही कर्म-प्रकृति विनाश रे । स्तवर समयमें पहुँचते अहँत-प्रभु लोकाग्र रे ।। १७६ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com