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नियमसार
३४३
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। तम्हा ण होइ बंधो साक्खटुं मोहणीयस्स।।१७५ ।।
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः। तस्मान्न भवति बंध: साक्षार्थं मोहनीयस्य।। १७५ ।।
केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत्।
भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिन: परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न किमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनः इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति। ततस्तस्य तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधो न भवति।
स च बंधः पुनः किमर्थं जातः कस्य संबंधश्च ?
उन्होंने लोकके विस्तारको सर्वतः छा दिया है। २९१ ।
गाथा १७५ अन्वयार्थ:-[ केवलिनः ] केवलीको [ स्थाननिषण्णविहाराः ] खड़े रहना, बैठना और विहार [ ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [ न भवन्ति ] नहीं होता, [ तस्मात् ] इसलिये [ बंधः न भवति] उन्हें बंध नहीं है; [ मोहनीयस्य ] मोहनीयवश जीवको [ साक्षार्थम् ] इंद्रियविषयसहितरूपसे बंध होता है।
टीका:-यह, केवलीभट्टारकको मनरहितपनेका प्रकाशन है (अर्थात् यहाँ केवलीभगवानका मनरहितपना दर्शाया है)।
अहँतयोग्य परम लक्ष्मीसे विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवलीभगवानको इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि मनप्रवृत्तिका अभाव है; अथवा, वे इच्छापूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि 'अमनस्काः केवलिन: ( केवली मनरहित हैं)' ऐसा शास्त्रका वचन है। इसलिये उन तीर्थंकर-परमदेवको द्रव्यभावस्वरूप चतुर्विध बंध (प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध , स्थितिबंध और अनुभागबंध ) नहीं होता।
और, यह बंध (१) किस कारणसे होता है तथा (२) किसे होता है ?
अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवरको नहीं । निर्बन्ध इससे, बंध करता मोह-वश साक्षार्थ ही ।।१७५।।
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