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नियमसार
३३३
लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।।१६९ ।।
लोकालोकौ जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान्। यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति।।१६९ ।।
व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम्।
सकलविमलकेवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेशः षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया कोपि जिननाथतत्त्वविचारलब्धः ( दक्षः) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति।
गाथा १५९ अन्वयार्थ:-[ केवली भगवान् ] ( व्यवहारसे) केवली भगवान [ लोका-लोकौ] लोकालोकको [ जानाति] जानते हैं, [न एव आत्मानम् ] आत्माको नहीं-[ एवं ] ऐसा [ यदि ] यदि [ कः अपि भणति ] कोई कहे तो [ तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? ( अर्थात् कोई दोष नहीं है।)
टीका:-यह , व्यवहारनयकी प्रगटतासे कथन है। " पराश्रितो व्यवहारः ( व्यवहारनय पराश्रित है)” ऐसे (शास्त्रके) अभिप्रायके कारण, व्यवहारसे व्यवहारनयकी प्रधानता द्वारा (अर्थात् व्यवहारसे व्यवहारनयको प्रधान करके), 'सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुंदर कामिनीके जो जीवितेश हैं ( –मुक्तिसुंदरीके जो प्राणनाथ हैं) ऐसे भगवान छह द्रव्योंसे व्याप्त तीन लोकको और शुद्ध-आकाशमात्र अलोकको जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार ) शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं ही जानते' ---ऐसा यदि व्यवहारनयकी विवक्षासे कोई जिननाथके तत्त्वविचारमें निपुण जीव (-जिनदेव द्वारा कहे हुए तत्त्वके विचारमें प्रवीण जीव) कदाचित् कहे, तो उसे वास्तवमें दूषण नहीं है।
भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्म-ना। यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो दोष क्या ।। १६९ ।।
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